Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन पुनश्च ( विशेष समझाया जाता है )-- __ जिसप्रकार जिसका विचित्र चित्रोंसे चित्रित नीचेका अर्ध भाग कुछ ढंका हुआ और कुछ बिना ढंका हो तथा सुविशुद्ध ( अचित्रित ) ऊपरका अर्ध भाग मात्र ढंका हुआ ही हो ऐसे बहुत लम्बे बांस पर दृष्टि डालनेसे वह दृष्टि सर्वत्र विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेको व्याप्तिका निर्णय करती हुई “वह बाँस सर्वत्र अविशुद्ध है ( अर्थात् सम्पूर्ण रंगबिरंगा है)" ऐसा अनुमान करती है, उसी प्रकार जिसका ज्ञानावरणादि कर्मोंसे हुआ चित्रविचित्रतायुक्त ( विविध विभावपर्यायवाला ) बहुत बड़ा नीचे का भाग कुछ ढका हुआ और कुछ बिन ढका है तथा सुविशुद्ध ( सिद्धपर्यायवाला ), बहुत बड़ा ऊपरका भाग मात्र ढका हुआ ही है ऐसे किसी जीवद्रव्यमें बुद्धि लगानेसे वह बुद्धि सर्वत्र ज्ञानावरपादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेकी व्याप्तिका निर्णय करती हुई 'वह जीव सर्वत्र अविशुद्ध है' ऐसा अनुमान करती है। पुनश्च, जिस प्रकार उस बांसमें व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [ नीचेके खुले भागमें 1 विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेका अन्वय ( संतति, प्रवाह ) है, उसी प्रकार उस जीवद्रव्यमें व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [ नीचेके खुले भागमें ] ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रवित्रित्रपनेका अन्वय है। और जिस प्रकार उस बाँसमें ( ऊपरके भागमें ) सुविशुद्धपना है क्योंकि ( वहाँ ) विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपके अन्वयका अभाव है, उसी प्रकार उस जीवद्रव्यमें ( ऊपरके भागमें ) सिद्धपना है क्योंकि ( वहाँ) ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है कि जो अभाव आप्तआगम के ज्ञानसे सम्यक् अनुमानज्ञानसे अतीन्द्रियज्ञानसे ज्ञात होता है ।।२०।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-२० अथ यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सर्वदेव शुद्धरूपस्तिष्ठति तथापि पर्यायार्थिकनयेन . सिद्धस्यासदुत्पादो भवतीत्यावेदयति, अथवा यदा मनुष्यपर्याये विनष्टे देवपर्याये स एव जीवस्तथा मिथ्यात्वरागादिपरिणामाभावात् संसारपर्यायविनाशे सिद्धपर्याये जाते सति जीवत्वेन विनाशो नास्त्युभयत्र स एव जीव इति दर्शयति, अथवा परस्परसापेक्षद्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयद्येन पूर्वोक्तप्रकारेणानेकान्तात्मकं तत्त्वं प्रतिपाद्य पश्चात्संसारावस्थायां ज्ञानावरणादिरूपबन्धकरणभूतं मिथ्यात्वरागादिपरिणामं त्यक्त्वा शुद्धभावपरिणमनान्मोक्षं च कथयतीति पातनिकात्रयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति-णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ट अणुबद्धा-ज्ञानाचरणादिभावद्रव्यकर्मपर्यायाः संसारिजीवेन सुष्ठु संश्लेषरूपेणानादिसंतानेन बद्धास्तिष्ठन्ति तावत् 'तेसिमभावं किच्चा अभूदपुबो हवदि सिद्धो' यदा कालादिलब्धिवशाझेदाभेदरत्नत्रयात्मकं व्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग 'लभते तदा तेषां ज्ञानावरणादिभावानां द्रव्यभावकर्मरूपपर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेनाभूतपूर्वसिद्धो भवति, द्रव्यार्थिकनयेन पूर्वमेव सिद्धरूप इति वार्तिकं । तथाहि--यथैको महान् वेणुदण्डः पूर्वार्धमागे विचित्रचित्रेण खचितः शबलितो मिश्रितः तिष्ठति तस्मादूर्वार्द्धभागे विचित्रचित्राभावाच्छुद्ध एवं तिष्ठति तत्र यदा कोपि देवदत्तो दृष्ट्यावलोकने करोति तदा भ्रान्तिज्ञानवशेन