Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
हिन्दी समयव्याख्या गाथा-१८ अन्वयार्थ (सः च एव ) वही ( जाति) जन्म को और वही ( मरणं याति ) मृत्यु को प्राप्त करता है तथापि ( न एव उत्पन्नः ) वह उत्पन्न नहीं होता ( च ) और ( न नष्टः ) नष्ट नहीं होता, ( देव: मनुष्यः ) देव, मनुष्य ( इति पर्याय: ) ऐसी पर्याय ( उत्पन्नः ) उत्पन्न होती है (च) और ( विनष्टः) विनष्ट होती है।
टीका-यहाँ, द्रव्य कथंचित् व्यय और उत्पादवाला होने पर भी उसका सदैव अविनष्टपना और अनुत्पत्रपना कहा है।
जो द्रव्य पूर्व पर्यायके वियोगसे और उत्तर पर्यायके संयोगसे होनवाली उभय अवस्थाओंको आत्मसात् ( अपने रूप) करता हुआ विनष्ट होता और उपजता दिखाई देता है, वही ( द्रव्य) वैसी उभय अवस्थाओमें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत-एक-वस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा ( उस स्वभावकी अपेक्षासे) अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है, उसकी पर्यायें पूर्व-पूर्व परिणामके नाशरूप और उत्तर-उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश उत्पादधर्मवाली कही जाती हैं, और वे ( पर्याये ) वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई हैं। इसलिये, पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पत्र एवं अविनष्ट ही देखना ( श्रद्धा करना ), देव-मनुष्यादि पर्यायें उपजती हैं और विनष्ट होती है क्योंकि वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है ।।१८।।
संस्कृत तात्पर्यवृत्ति गाथा-१८ अथ तमेवार्थं नयद्वयेन पुनरपि द्रढयति,-सो चे जादि-स च एव जीवपदार्थ: पर्यायार्थिकनयेन देवपर्यायरूपां जातिमुत्पत्तिं जादि-याति गच्छति स चैव मरणं-मरणं याति । ण णहो ण उप्पपणो। द्रव्यार्थिकनयेन पुनर्न नष्टो न चोत्पन्नः । तर्हि कोसौ नष्टः कोसौ उत्पन्न ? उप्पण्णो य विणट्ठो मणुसोति पज्जाओ-पर्यायार्थिकनयेन देवपर्याय उत्पन्नो मनुष्यपर्यायो विनष्ट: । ननु यद्युत्पादविनाशौ तर्हि तस्यैव पदार्थस्य नित्यत्वं कथं ? नित्यत्वं तर्हि तस्यैवोत्पादव्ययद्वयं च कथं परस्परविरुद्धमिदं शीतोष्णवदिति पूर्वपक्षे परिहारमाहुः । येषां मते सर्वथैकान्तेन नित्यं वस्तु क्षणिकं वा तेषां दूषणमिदं । कथमिति चेत् ? येनैव रूपेण नित्यत्वं तेनैवानित्यत्वं न घटते, येन च रूपणानित्यत्वं तेनैव नित्यत्वं न घटते । कस्मात् ? एकस्वभावत्वाद्वस्तुनस्तन्मते । जैनमते पुनरनेकस्वभावं वस्तु तेन कारणेन द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यरूपेण नित्यत्वं घटते पर्यायार्थिकनयेन पर्यायरूपेणानित्यत्वं च घटते । तौ च द्रव्यपर्यायौ परस्परं सापेक्षौ, तच्च सापेक्षत्वं "पज्जयरहियं दव्यं दबविमुत्ता य पज्जया णत्थि' इत्यादि पूर्व व्याख्यातं तेन कारणेन द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: परस्परगौणमुख्यभावव्याख्यानादेकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभाववत् एकस्यापि द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते, नास्ति विरोध इति सूत्रार्थः ।।१८॥