Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत
तदनुकूलानुष्ठोनं कर्तव्यमिति सूत्रतात्पर्यार्थः || १३ || एवं गुणपर्यायरूपत्रिलक्षणप्रतिपादनरूपेण गाथाद्वयं । इति पूर्वसूत्रेण सह गाथात्रयसमुदायेन चतुर्थस्थलं गतम् ।
हिन्दी तात्पर्यवृत्ति गाथा - १३
उत्थानिका- आगे निश्चयनयसे द्रव्य और गुणोंका अभेद है ऐसा दिखाते हैं
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अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( दव्वेण ) द्रव्यके ( विणा ) विना ( गुणा पण ) गुण नहीं हो सकते तथा ( गुणेहिं विणा ) गुणोंके विना ( दव्वं ) द्रव्य ( ण संभवदि) नहीं संभव है (तम्हा) इसलिये (दव्वगुणाणं) द्रव्य और गुणोंका ( अव्वदिरित्तो भावो ) अभिन्नभाव [ हवदि ] होता है ।
विशेषार्थ - वृत्तिकार पुल द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि जैसे पुद्गल द्रव्यकी सत्ताके बिना उसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं पाए जासकते वैसे द्रव्यके बिना गुण नहीं होते हैं तथा जैसे वर्णादि गुणोंको छोड़कर पुल द्रव्य नहीं मिलता है वैसे गुणोंके बिना द्रव्य नहीं प्राप्त हो सकता है । द्रव्य और गुणोंकी सत्ता अभिन्न है- एक है, क्योंकि द्रव्यकी अपेक्षा वे अभिन्न हैं । द्रव्य और गुणोंके प्रदेश अभिन्न हैं- एक हैं, क्योंकि क्षेत्र की अपेक्षा एकता है । द्रव्य और गुणोंका एक ही काल उत्पाद व्ययका अविनाभाव है क्योंकि कालकी अपेक्षा दोनों एक हैं । द्रव्य और गुण दोनों एक स्वरूप हैं क्योंकि उनका स्वभाव एक है । क्योंकि द्रव्य और गुणों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी अपेक्षा अभेद है इस लिये द्रव्य और गुण अभिन्न हैं- एक हैं। अथवा दूसरा व्याख्यान करते हैं कि, भाव जो पदार्थ वह द्रव्य और गुणोंसे अभिन्न है अर्थात् द्रव्य गुणरूप ही पदार्थ कहा गया है। निर्विकल्प समाधिके बलसे उत्पन्न जो वीतराग सहज परमानन्दमय सुख उसकी संवित्ति, प्राप्ति, प्रतीति व अनुभूतिरूप जो स्वसंवेदन ज्ञान है उसीसे ही जानने योग्य या प्राप्त योग्य जो रागादि विभावोंके विकल्प जालोंसे शून्य होकर भी केवलज्ञानादि गुणोंके समूहसे भरा हुआ शुद्ध जीवास्तिकाय नामका शुद्ध आत्मद्रव्य है उसीको ही मनसे ध्याना चाहिये, उसीको ही वचनोंसे कहना चाहिये व उसीका ही अनुष्ठान या ध्यान कायसे करना चाहिये, यह इस सूत्रका तात्पर्य है ।। १३ ।।
इस तरह गुण पर्यायोंका लक्षण करते हुए दो गाथाऐं पूर्ण हुई व उनके पूर्व सूत्रके साथ तीन गाथाके समुदायसे चौथा स्थल पूर्ण हुआ ।