Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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घंचास्तिकाय प्राकृत पर्याय उपजती है तैसे ही सतरूप सदा रहनेवाले जो जीव आदि छः द्रव्य हैं उनका द्रव्यार्थिकनयसे कभी नाश नहीं होता है और जो असत् या नहीं विद्यमान जीवादि पदार्थ हैं उनका द्रव्यार्थिकनयसे द्रव्यरूपसे कभी उत्पाद नहीं होता है तथापि गुणोंकी पर्यायोंके अधिकरणमें जीव आदि छहों द्रव्य पर्यायार्थिकनयसे यथासंभव उत्पाद व्यय करते रहते हैं। जैसे जीवोंमें नर नारकादि पर्यायें, पुद्गलोंमें द्विअंणुक स्कंध आदि पर्यायें होती है व धर्ममें गतिसहकारपना, अधर्ममें स्थितिसहकारीपना, आकाशमें अवगाह सहकारीपना तथा कालमें वर्तना सहकारीपना होनेसे पर्यायें होती हैं । यहाँ छ: द्रव्योंके मध्यमें शुद्ध पारिणामिक परमभावको ग्रहण करनेवाली शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे अथवा निश्चयनयसे क्रोध, मान, माया, लोभ तथा देखे सुने व अनुभव किए हुए भोगोंकी इच्छा रूप निदान बंध आदि पर-भावोंसे शून्य होनेपर भी अथवा उत्पाद व व्यय रहित होनेपर भी अनादि अनंत चिदानंदमय एक स्वभावसे भरे हुए जीवास्तिकाय नामके शुद्ध आत्मद्रव्यको ध्याना चाहिये, यह अभिप्राय है। इस तरह दूसरे सप्तकमें बौद्धों के लिये द्रव्यकी स्थापना करते हुए सूत्र कहा ।।१५।।
समय व्याख्या गाथा-१६ अत्र भावगुणपर्यायाः प्रज्ञापिताः भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो। सुर-णर-णारय-तिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ।।१६।।
भावा जीवाधा जीवगुणाश्चेतना चोपयोगः ।।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्यायाः बहवः ।।१६।। भावा हि जीवादयः षट् पदार्थाः । तेषां गुणा: पर्यायाश्च प्रसिद्धाः । तथापि जीवस्य वक्ष्यमाणोदाहरणप्रसिद्ध्यर्थमभिधीयन्ते । गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना, कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षण: सविकल्पनिर्विकल्परूप: शुद्धशुद्धतया सकलविकलतां दधानो द्वेधोपयोगश्च । पर्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृता: शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्यसंबन्धनिवृत्तत्वादशुद्धाश्चेति ।।१६।।
हिंदी समय व्याख्या गाथा-१६ अन्वयार्थ--( जीवाद्याः ) जीवादि ( द्रव्ये ) वे ( भावाः ) 'भाव' । द्रव्य पदार्थ ) है