Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पंचास्तिकाय प्राभृत अथवा द्वितीयव्याख्यानं-द्वयोव्यपर्याययोरनन्यभूतमभिन्नभावं पटार्थं वस्त श्रमणा: प्ररूपयन्ति । भावशन्दन कथं पदाथों भण्यत इति चेत् ? द्रव्यपर्यायात्मको भावः पदार्थों वस्त्विति वचनात् । अत्र सिद्धरूपशुद्धपर्यायादभिन्नं शुद्धपर्यायादभित्रं शुद्धजीवास्तिकायसंज्ञं शुद्धजीवद्रव्यं शुद्धनिश्चयनयगोपादेयमिति भावार्थः । यस्मिन् वाक्ये नयशब्दोच्चारणं नास्ति तत्र नयशब्दाध्याहारः कर्तव्यः 'क्रयाकारकयारन्यतराध्याहारवत् स्याच्छब्दाध्याहारवद्वा ।।१२।।
हिंदी तात्पर्यवृत्ति गाथा-१२ उत्थानिका-आगे दिखाते हैं कि निश्चय नयसे द्रव्य और पर्यायोंका अभेद हैं ।
अन्वयसहित सामान्यार्थ-[पज्जयविजुद पर्यायोंसे रहित [दव्वं ] द्रव्य [य] और (दव्वविजुत्ता) द्रव्यसे रहित ( पज्जया) पर्यायें ( णस्थि ) नहीं होती हैं। [समणा ] मुनिगण ( दोण्हं ) दोनोंका ( अणण्णभूदं) एक अभेदरूप [ भावं] भाव (परूविंति ) कहते हैं।
विशेषार्थ-जैसे दही, दूध आदि पर्यायोंके बिना गोरस नहीं मिल सकता है वैसे पर्यायोंके बिना द्रव्य नहीं होता है । अथवा जैसे गोरसके बिना दही दूध आदि पर्यायें नहीं हो सकतीं वैसे द्रव्यके बिना पर्याय नहीं होती हैं इसीलिये दोनोंका अभेद है । अभेद नय से द्रव्य और पर्याय में भेद नही है इसलिये ही द्रव्य और पर्याय दोनों में अनन्यभूत अभिन्न भाव अस्तित्व रूप सत्ता सर्वज्ञ ने कही है । अथवा पिछली आधी गाथाका यह भी अर्थ है कि द्रव्य और पर्यायों का एकीभावरूप पदार्थ है ऐसा श्रमण कहते हैं। भाव शब्दको पदार्थ कहते हैं। जैसे कहा है 'द्रव्यपर्यायात्मको भावः पदार्थो वस्त्वस्ति' अर्थात् द्रव्य पर्यायरूप भाव या पदार्थ या वस्तु होती है।
यहाँ शुद्ध निश्चयनयसे सिद्धरूप शुद्ध पर्यायसे अभित्र शुद्ध जीवास्तिकाय नामका जो शुद्ध जीव द्रव्य है वही ग्रहण करने योग्य है-यह भाव है।
वृत्तिकारका कथन है कि जिस वाक्यमें नय शब्दका उच्चारण न हो वहाँ 'नय शब्दका अध्याहार करना चाहिये । जैसे क्रिया और कारक एक दूसरेसे सम्बन्ध रखते हैं, इसलिये जहाँ एक न हो वहाँ दूसरे को समझ लेते हैं अथवा स्यात् शब्दके समान जानना चाहिये । जहाँ स्यात् शब्द नहीं कहते वहाँ भी स्यात् शब्द समझ लिया जाता है ।।१२।।
समय व्याख्या गाथा-१३ अत्र द्रव्यगुणानामभेदो निर्दिष्टः ।