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कसायपाहुडसुत्त उपयुक्त दोनो उद्धरणोंके अन्तिम भागमे जो भेद दृष्टिगोचर होता है, उसका कारण यह है कि एकमें मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेश-सत्कर्मका स्वामित्व बतलाया गया है, तो दूसरेमें ज्ञानावरणीय कर्मकी जघन्यवेदनाका स्वामित्व बतलाया गया है। वेदनाखडमें आठो मूल कर्मोंके वेदना-स्वामित्वका ही वर्णन किया गया है, उत्तर प्रकृतियोंका नहीं। किन्तु कसायपाहुडमें तो केवल एक मोहकर्मके उत्तर प्रकृतियोंका ही स्वामित्व बतलाया गयाहै, अतएव जहाँ जितने अंशमें उनके स्वामित्वमे भेद होना चाहिए, उसे चूर्णिकारने तदनुरूप बतलाया है । वेदनाखडका उक्त सूत्र बहुत लम्बा है, अतएव जो अश जहाँ पर छोड़ दिया है, उस स्थल पर xxx यह चिह्न दिया गया है। छोड़े गये अंशमें जो बात कही गई है, वह चूर्णिकारने 'अभवसिद्धियपा
ओग्गं जहएणगं कम्मं कदं' इस एक वाक्यमें ही कहदी है। इसी प्रकार और भी जो थोड़ा बहुत शब्द-भेद दृष्टिगोचर होता है, उसे भी चर्णिकारने संक्षिप्त करके अपने शब्दोमें कह दिया है, वस्तुत' कोई अर्थ-भेद नहीं है।
ऊपर बतलाये गये चूर्णिसूत्र और षटूखंडागमसूत्रकी समतासे जयधवलाकार भी भलीभांति परिचित थे और यही कारण है कि दोनों सत्रोंमें जो एक खास अन्तर दिखाई देता है, उसका उन्होंने अपनी टीकामे शंका उठाकर निम्न प्रकारसे समाधान भी किया है । जयधवलाका वह अंश इस प्रकार है
वेयणाए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेरणियं कम्मठिदिं सुहुमेइं दिएसु हिंडाविय तसकाइएसु उप्पाइदो । एत्थ पुण कम्मठिदि संपुगणं भमाडिय तसत्तं णीदो। तदो दोण्हं सुत्ताणं जहाऽविरोहो तहा वत्तव्यमिदि । जइवसहाइरिओवएसेण खविदकम्मंसियकालो कम्मठिदिमेत्तो, 'सुहुमणिगोदेसु कम्मठिदिमच्छिदाउओ' त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो । भूदवलिपाइरिअोवएसेण पुण खविदकम्मंसियकालो कम्मट्ठिदिमेतो पलिदोवमस्स अमंखेज्जदिभागेणूणं । एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मझे सच्चेणेक्केणेव होदव्यं । तत्थ सच्चत्तणेगदरणिएणो णत्थि त्ति दोएहं पि संगहो कायव्यो । जयध०
. अर्थात् पट्खंडागमके वेदनानामक चौथे खंडमे पल्योपमके असंख्यातवे भागसे न्यून कमेस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्मएकेन्द्रियोमे घुमाकरके त्रसकायिकोंमें उत्पन्न कराया गया है। किन्तु यहां पर प्रकृत चूर्णिसूत्रमें, तो उसे सम्पूर्ण कर्मस्थितिप्रमाण सूक्ष्मएकेन्द्रियोंमे घुमाकरके सपनेको प्राप्त करा गया है ? ( इसका क्या कारण है ? ऐसा पूछने पर जयधवलाकार कहते है कि ) यद्याप यह दोनों सूत्रों (आगमों) मे विरोध है, तथापि जिस प्रकारसे अविरोध संभव हो, उस प्रकारसे इसका समाधान करना चाहिए। यतिवृपभाचार्यके उपदेशसे क्षपित-कर्माशिकका काल पूरी कर्मस्थितिमात्र है, अन्यथा प्रकृत सूत्रमे 'सूक्ष्मनिगोदियोंमे कर्मस्थिति तक रहा' इस प्रकारका निर्देश नहीं हो सकता था। किन्तु भूतबलि प्राचार्य के उपदेशसे क्षपितकर्माशिकका काल पल्योपमर्क असंख्यातवें भागसे न्यून कर्मस्थितिमात्र है। इन दोनों परस्पर-विरोधी उपदेशों से सत्य तो एक ही होना चाहिए । किन्तु किसी एककी सत्यताका निर्णय (आज केवली या श्रुतकेवलीके न होने से ) संभव नहीं है, अतएव दोनोंका ही संग्रह करना चाहिए।
उक्त शंका-समाधानमें, जिस सैद्धान्तिक भेदका उल्लेख किया गया है, वह उपयुक्त दोनों उद्धरणोंके प्रारम्भमें ही दृष्टिगोचर हो रहा है । जययवलाकारके इस शंका-समाधानसे भी