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चौथा अध्याय जुदा हो सकता है । जैसे दो आदमी समान ज्ञानी हों अर्थात् दोनों एम. ए. हों, पर एक गणित में हो दूसरा रसायन में । साधारणतः दोनों समानज्ञानी कहलायगे पर विषयमें काफी अन्तर होगा । यही बात निरावरणज्ञानियों के विषय में है।
प्रश्न-यह ठीक है कि एक समय में किसी आत्मा में अनंत पदार्थों की जानकारी नहीं हो सकती पर अधिक से अधिक कितना जान सकता है इसका भी कुछ निर्णय नहीं है। तब ज्ञान की सीमा क्या मानी जाय ?
उत्तर-इसकी निश्चित सीमा नहीं बताई जा सकती सिर्फ इतना निश्चय से कहा जा सकता है कि अनन्त नहीं है क्योंकि अनंत में पहिले बनाई हुई जबर्दस्त बाधा है। इसलिये उसे असंख्य कहसकते हैं। असंख्य का अर्थ कुछ लम्बी संख्या है जिसका हम जल्दी हिसाब नहीं लगा सकते । जैसे वर्षा के बिन्दुओं को या जलाशय के बिन्दुओं को हम असंख्य कह देते हैं यद्यपि उन्हें गिना जा सकता है पर वह गिनती लम्बी और दुःसाध्य है इसलिये वह असंख्य है इसी प्रकार ज्ञान की सीमा के विषय में है। हमें नास्ति अवक्तव्य भंग की अपेक्षा से इस प्रश्न का उत्तर समझना चाहिये कि ज्ञान. अनंत नहीं जान सकता पर कितना जान सकता है यह कहा नहीं जा सकता।
प्रश्न--सप्तभंगी में अवक्तव्य भंग का उपयोग वहीं किया जा सकता है जहाँ अस्ति और नास्तिको हम एक साथ बोल न सकें पर आप तो इस भंग का उपयोग कुछ दूसरे ही ढंग से करते हैं। यह क्या बात है ?