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पाँचवाँ अध्याय
[ १ ] तलवार को देखते समय आंखों पर तलवार की किरणें पड़ती हैं, न कि तलवार । काटने का काम तलवार का है, जलाने का काम अग्नि का है, न कि उनकी किरणों का । हां! किरणों का भी कुछ न कुछ असर पड़ता है। हरे रंग का आंखों पर अच्छा खराब प्रभाव पड़ता है, ज्यादः चमकदार और लाल रंग का खराब प्रभाव पड़ता है | चंचल किरणों का भी बुरा प्रभाव पड़ता है; ज्यादः सिनेमा देखने से, ट्राम बस आदि में बैठ कर पढ़ने से आंखें जल्दी खराब होतीं हैं । यह किरणों का प्रभाव है ।
[ २ ] फोकस ठीक न मिलने से अंजन-शलाका आदि दिखाई नहीं पड़ती । फोकस के लिये परिमित दूरी जरूरी है ।
( ३ ) निकट या दूर के दो पदार्थों की किरणें जब आँख पर पड़ती हैं तब उसमें दोनों पदार्थ दिखाई देते हैं ।
( ४ ) आंखों से किरणें न निकलने की बात ठीक है ।
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( ५ ) क्षयोपशम तो एक शक्ति देता है, उसे हम लब्धि कहते हैं। देखने की लब्धि तो सदा रहती है। कोई पदार्थ सामने लाने पर दिखाई देता है, प्रकाश से प्रगट होता है, इनका कारण क्या है ? इसका उतर जैनाचार्यों के पास नहीं है । दर्पण में प्रतिबिम्ब बताते हैं और उसे छाया कहते हैं; परन्तु किरणों के निमिश के बिना छाया कैसे होगी ? इत्यादि प्रश्नों के विषय में भी वे मौन हैं । जैनाचार्यों ने प्राचीन मतका खण्डन तो ज़रूर ठीक किया है परन्तु वे अपनी बात कुछ नहीं कह सके हैं। पदार्थ की किरणों के आंखपर पड़ने की बात माननेसे सब बातें ठीक हो जाती है ।