Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 410
________________ ४१०] पाँचवाँ अध्याय एक रसायन शास्त्री अच्छी तरह दे सकता है । फिर भी वह चतुर वैद्यका काम नहीं कर सकता । वैद्यका काम शरीर के तत्वोंका विश्लेषण नहीं, किन्तु स्वास्थ्य-अस्वास्थ्यका विश्लेषण करना है । मनःपर्ययज्ञानी आत्महिताहितकी दृष्टि से मानसिक जगतका विश्लेषण करता है । दूसरी बात यह है कि मनोविज्ञान एक शास्त्र है इसीसे वह परोक्ष है जब कि मनःपर्ययज्ञान अनुभव की वह अवस्था है जो संयमी हुए बिना नहीं हो सकती । वह अनुभवात्मक होने से प्रत्यक्ष है । मनोविज्ञानका बड़ा से बड़ा पंडित बड़ा से बड़ा असंयमी हो सकता है किन्तु मनःपर्ययज्ञानी असंयमी नहीं हो सकता । इसलिये यह कहना चाहिये कि मनोविज्ञान एक भौतिकविद्या है, जब कि मनःपर्ययज्ञान एक आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान या आत्मा की अशुद परिणातियोंका सत्य प्रत्यक्ष है । हाँ, मनोविज्ञान मनःपर्ययके लिये बाहिरी भूमिकाका काम दे सकता है। प्रश्न- थोड़ा बहुत आत्मनिरीक्षण तो सभी कर सकते हैं। खासकर जो सम्यग्दृष्टि हैं, सच्चे मुनि हैं वे आत्म-निरीक्षण करते ही हैं परन्तु इन सबको मनःपर्ययज्ञान नहीं माना जाता । किसी किसी को होता है, यह बात दूसरी है; परन्तु सबको क्यों न कहा जाय ? उत्तर- भेदविज्ञान और मनोवृत्तियों का स्पष्टज्ञान, इन में बहुत अन्तर है । सम्यग्दृष्टि जो आत्मनिरीक्षण करता है वह भेदविज्ञान है, जिससे वह जड़ पदार्थों से आत्माको भिन्न समझता है या भिन्न अनुभव करता है । फिर भी वह मनोवृत्तियोंकी वास्तविकताका साक्षात्कार नहीं कर सकता, क्योंकि अगर ऐसा करे-तो वह

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