Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 409
________________ अवधिज्ञान [४०९ उसका असंयम, आवश्यकता आदि का बहाना निवाल कर अपने को मुलाने की चेष्टा करता है । कभी कभी हम किसी घटना का इस तरह वर्णन करते हैं, मानों विबरण सुनाने के सिवाय हमारा उस घटना से कोई सम्बन्ध ही नहीं है; परन्तु उसके भीतर आत्मश्लाघा किस जगह छुपी बैठी है इसका हमें पता ही नहीं लगता । अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म मानसिक भावों का निरीक्षण कर सकना बहुत कठिन है । हाँ, कभी कभी हम किसी के उपदेश की सूचनानुसार आत्मनिरीक्षण का नाटक कर सकते हैं, दंभ को दूर हटाने का भी दंभ हो सकता है, परन्तु सच्चा आत्म-निरीक्षण नहीं होता, अत्यन्त उच्चश्रेणी के संयम के बिना सच्चा आस्मानेरीक्षण नहीं हो सकता । अथवा यों कहना चाहिये कि जो इस प्रकार का आत्मनिरीक्षण कर सकता है, वह उत्कृष्ट संयमी है, किसी भी वेष में रहते हुए मुनि है। जो मनुष्य इस प्रकार अपने मनोभावों का निरीक्षण कर सकता है, उसे दूसरोंके ऐसे ही मनोभावों को समझने में कठिनता नहीं रहती। कौन मनुष्य किस तरह आत्मवञ्चना कर रहा है, वह इस बातको अच्छी तरह जानता है । आत्मवञ्चक की अपेक्षा भी उसका ज्ञान इतना स्पष्ट और दृढ़ होता है कि उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। ऐसा मनुष्य मनोविज्ञान का अनुभवी विद्वान् विशेष बुद्धिमान (शास्त्रीय शब्दों में बुद्धि-ऋद्विधारी) होता है। प्रश्न- मनोविज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में क्या अन्तर है ! ... उत्तर- अपने शरीर में कौन कौन तत्त्व हैं और किस क्रियाका किस तत्व पर क्या प्रभाव पड़ता है; आदि बातोंका उत्तर

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