Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 407
________________ मनःपर्यय ज्ञान [४०७ जाती है। इसमे मालूम होता है कि मनःपर्ययज्ञान एक प्रकार का मानसिक ज्ञान है। मनःपर्ययज्ञानके विषयमें एक बड़ा भारी प्रश्न यह है कि वह अवधिज्ञान से ऊँचे दर्जे का तो कहा जाता है परन्तु न तो वह अवधिज्ञान की तरह निर्मल होता है न उसका क्षेत्र विशाल है, न काल अधिक है, न द्रव्य अधिक है । इस तरह अवधिज्ञान से अल्पशक्तिवाला होने पर भी उसका महत्त्व अधिक कहा जाता है । अवधिज्ञान तो पशु-पक्षी नारकी आदि चारों गतियों के प्राणियों के माना जाता है परन्तु मनःपर्यय तो सिर्फ मुनियों के माना जाता है और वह भी सच्चे मुनियोंके, उन्नतिशील मुनियोंके । मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त करने की यह शर्त मनःपर्ययज्ञान के स्वरूप पर अद्भुत प्रकाश डालती है। इससे मालूम होता है कि मनःपर्ययज्ञान विशेषविचारणात्मक मानसिक ज्ञान है । जिस प्रकार किसी मुर्ख और दुराचारी की आँख अच्छी हो तो वह खगब आँखवाले सदाचारी विद्वान्की अपेक्षा अधिक देखेगा किन्तु इसीसे उस मूर्ख दुराचारी मनुष्यका आसन ऊँचा नहीं हो जाता; ठीक यही गत अवधि और मनःपर्ययके विषय में है। अवधिज्ञान भौतिक विषय को ग्रहण करनेवाला है जबकि मनः पर्ययज्ञान आध्यात्मिक है; अथवा यों कहना चाहिये कि उसकी भौतिकता अवधिज्ञान की अपेक्षा बहुत कम और आध्यात्मिकता अधिक है । मनःपर्ययज्ञान का स्थान अवधिज्ञानकी अपेक्षा जो उच्च है वह भौतिक विषय की अपेक्षा से नहीं, किन्तु आध्यात्मिक विषय

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