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४०६ ] पाचैवाँ अध्याय जानते हैं उससे अधिक सफ़ाई के साथ मनःपर्ययज्ञानी मनको बाता को जानता है इसीसे वह प्रत्यक्ष कहा जाता है । प्रत्यक्ष, यह आपेक्षिक शब्द है । एक ज्ञान अपेक्षा भेद से प्रत्यक्ष और परोक्ष कहलाता है । अनुमानको हम श्रुतकी अपेक्षा प्रत्यक्ष और ऐन्द्रियज्ञानकी अपेक्षा परोक्ष कह सकते हैं । फिर भी अनुमानको परोक्षक भदोंमें शामिल करने का कारण यह है कि हमारे सामने अनुमानसे भी स्पष्ट इन्द्रियज्ञान मौजूद है। अगर हमारे सामने कोई ऐसा ज्ञान होता जो कि मनःपर्ययको अपेक्षा मानसिक भावोंको 'अधिक स्पष्टतासे जानता तो हम मनःपर्ययको भी परोक्ष कहते । मानसिक भावाके ज्ञानको अधिक से अधिक स्पष्टता मनःपर्ययज्ञान में पाई जाती है इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा ह । मतलब यह है कि कोई ज्ञान ज्ञानपूर्वक हो या न हो इस पर उस की प्रत्यक्षता परोक्षता निर्भर नहीं है किन्तु दूसरे ज्ञानोंकी अपेक्षा प्रत्यक्षता परोक्षता निर्भर है; इसलिये ईहा-मतिज्ञानपूर्वक होने पर भी मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्ष हा जाता है।
___जब मनःपर्ययज्ञान ज्ञानपूर्वक सिद्ध होगया तब मनःपर्यय दर्शन मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती इसलिये वह जैनशाखों में नहीं माना गया।
अवधिज्ञान के जैसे चिह्न बताये जाते हैं मनःपर्यय के नहीं बताये जाते किन्तु मनःपर्ययज्ञान मन से होता है यही बात कही (१)
(१)- सव्वंग अंग संभव चिण्हादुप्पञ्जदे जहा जोही । मणपज्जवं च दव्वमणादो उपज्जदे णियमा गा० जी० ४४२ .