Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 405
________________ मनःपर्यय ज्ञान 1४०५.. नहीं कहते । मनःपर्ययज्ञानी तो सीधे मन का ब्रान करता है। उसे आकृति वगैरह का विचार नहीं करना पड़ता। .. मनःपर्यय का जो स्वरूप जैनशास्त्रों में बतलाया गया है, उसका वास्तविक रहस्य क्या है-यह चिंतनीय विषय है । अबविज्ञान के विषयमें पाँच इन्द्रिय से भिन्न इन्द्रिय का जैसा उल्लेख किया गया है, वैसा मनःपर्यय के विषय में नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें एक बड़ी बाधा यह है कि मनःपर्यय-दर्शन का उल्लेख नहीं मिलता । जो ज्ञान, ज्ञानपूर्वक होता है उसका दर्शन नहीं माना जाता . इसीसे रुतदर्शन नहीं माना गया । मनःपर्यय दर्शन नहीं माना गया, इसका कारण सिर्फ यही हो सकता है कि यह भी ज्ञानपूर्वक ज्ञान है । शास्त्रों में ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि मनःपर्यय ज्ञान के पहिले ईहा मतिज्ञान होता है । यद्यपि यह बात सिर्फ ऋजुमतिमनपर्ययज्ञान के विषय में कही गई है, तथापि इससे इतना तो सिद्ध होता है कि मनःपर्ययज्ञान के पहिले मतिज्ञान की आवश्यकता होती है। हाँ, यहाँ यह प्रश्न अवश्य उठता है कि जो ज्ञान ज्ञानपूर्वक होता है उसे प्रत्यक्ष कैसे कह सकते हैं ? परन्तु प्रत्यक्ष शब्दका अर्थ 'स्पष्ट' है हम लोग जिस प्रकार दूसरे के मनकी बातों को (१)- परमणसिट्ठियमहूँ ईहामदिणा उजुट्ठियं लहिय । पच्छा पच्च. क्खेण य उजुमदिणा जाणदे नियमा । गोम्मटसार जीवकांड ४४० ।

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