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४१२] पाँचवाँ अध्याय अनुभव से--प्रत्यक्ष से जानता है। जैनशास्त्रों में निश्चयरुतकेवली की परिभाषा यही की जाती है कि जो शुद्धात्मा को जानता है वह निश्चय-श्रुतकेवली (१) है । जब आत्मज्ञान से श्रुतकेवली बनता है तब आत्मा के ही प्रत्यक्ष से केवली होना चाहिये । जिसने आत्मा को जान लिया उसने सारा जिनशासन जान (२) लिया। इसलिये केवली को सर्वज्ञ कहते हैं।
उपनिषदों में जीवन्मुक्त अवस्था का जो वर्णन है वह भी आत्मा की एक अविकृत निश्चल दशा को बताता है । आत्मज्ञानी (३) को ही जीवन्मुक्त कहा जाता है। केवली, अर्हन्त, जीवन्मुक्त ये सब एक ही अवस्था के जुदे जुदे नाम हैं ।
इस प्रक र केवलज्ञान और अन्यज्ञानों के विषय में जो जैन साहित्य में भ्रम है वह यथाशक्ति इस विवेचन से दूर किया गया है।
(१)- जो हि सदेणमिणध्छादि अप्पाणामण तु केवलं सद्धं । तं सुदकेवलि मिसिणो मणति लोगप्पादीवयरा । समय प्राभृत ९ । यो भावमतरूपेण स्वसंवेदन झानेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चय इरुतकेवली भवति यस्तुस्वशुद्धात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्स्तार्थ जानाति से व्यवहारश्रुतकेवली । तात्पर्यवृत्तिः ।
(-)- जो पस्सदि अप्पाणं अवद्धपुढे अणपण मविससं । अपदेस सुचमझ पस्सदि जिणसासणं सव्वं । समयप्राभूत १७ ।
(३)-यस्मिन्काले स्वमात्मानं योगी जानाति केवली तस्माकालात्समारभ्य जीवन्मुक्तो भवेदी । वराहोपनिषत् २.४२ । चेतसो यदकर्तृत्वं तत्समावानभीरितम् । तदेव केवलीभावं सा शुमा निर्वतिः परा । महोपनिषत् ४-७ ।