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३८६ ] पाँचवाँ अध्याय परिचय. इस तरह भी दिया गया है कि श्रुतज्ञान को एकट्टि से भाग देने पर जो लब्धि आवे उस अर्थाक्षर [१] कहते हैं। अर्थात् यहां पर ज्ञानके अमुक परिमाणका नाम अक्षर है न कि स्वर-व्यंजन आदि।
- जैनाचार्यों ने यह बताने के लिये कि किस अंग, पूर्व और शास्त्र को पढ़ने से कितना ज्ञान होता है--सम्पूर्ण इरुतज्ञान को एक सौ चौरासी संख से भी अधिक टुकड़ों में कल्पना से विभक्त किया और इस एक एक टुकड़े को अक्षर कहा । जैसे हम एक देश को अनेक मीलों, योजनों आदि में विभक्त करते हैं, परन्तु इससे उस देश के उतने टुकड़े नहीं हो जाते किन्तु उस कल्पना से हम उसकी लघुता या महत्ता जान लेते हैं, इसी प्रकार श्रुतज्ञान का अक्षरविभाग ज्ञान की माप तौल के लिये उपयोगी है । उससे इतना मालूम होता है कि किस शास्त्र का, ज्ञान की दृष्टि से कितना मूल्य है ?
जिस प्रकार हम एक देश को ज़िलों, तहसीलों में विभक्त करके उनके जुदे जुदे नाम रख देते हैं, उसी प्रकार जैनाचार्यों ने श्रुतज्ञान के १८४ संख से भी अधिक टुकड़े कर के प्रत्येक टुकड़े का अलग अलग नाम रख दिया है । किसी का नाम 'क' किसी का नाम 'ख' किसी का नाम 'ग' किसी का नाम 'कख', किसी का नाम 'कग', किसी का नाम 'खगं', किसी का नाम कखग', इस प्रकार बढ़ते बढ़ते चौसठ अक्षरोंवाला. नाम भी है । गणितसूत्र
१ अर्थाक्षररूपोनॆकविभक्त श्रुतकवलमामेकाक्षर कानम् ।