Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 402
________________ ४०२] पाँचवाँ अध्याय . अवधिज्ञानी की एक विशेष बात और है कि परमावधिज्ञानी अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञानी (१) हो जाता है। अवधिज्ञान एक भौतिकज्ञान है और परमावधि का अर्थ है उत्तमश्रेणी का अवधिज्ञान । इसका मतलब हुआ कि परमावधि के द्वारा भौतिक जगत् का क़राब करीब पूर्णज्ञान हो जाता है। भौतिक जगतका करीब करीब पूर्णज्ञान हो जाने से वह शीघ्र ही केवली क्यों हो जाता है, इस का समझना कठिन नहीं है। यह जगत्-आत्मा और जड़ पदार्थों का सम्मिश्रण है। जो इस सम्मिश्रण का विवेक नहीं कर सकता वह आत्मा को नहीं जान सकता, इससे वह मिध्यादृष्टि रहता है । मिली हुई दो चीज़ों से अगर हम किसी एक चीज़ को अच्छी तरह अलग से जानल तो दूसरी चीज़ के जानने में कुछ कठिनाई नहीं रहती । इसलिये जो मनुष्य भौतिक जगतका ठीक ठीक पूर्णज्ञान कर लेगा, उसको तुरन्त मालूम हो जायगा कि इससे भिन्न आत्मा क्या पदार्थ है। भौतिक जगत को ठीक ठीक जान लेने से उसकी आत्मभिन्नता भी पूर्ण रूप से जानी जाती है । इससे आत्मा का शुद्ध स्वरूप समझमें आ जाता है इससे वह शुद्ध आत्मा और शुद्ध श्रुत का पूर्ण अनुभव करता है। शुद्ध आत्मा का पूर्ण अनुभव ही केवलज्ञान है। मतलब यह है कि चेतनको जान कर जैसे हम. जड़को अलग जान सकते हैं, उसी प्रकार जड़को जान कर भी हम चेतन को अलग जान सकते हैं। (१)- परमोहिन्नणवियो केवलमंतो मुहृत्तमेत्तेणं । विशेषावश्यक। ६८९ ।

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