Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 400
________________ अवधिज्ञान [३९९ है। व्यञ्जनावग्रह के प्रकरण में भी यह बात समझायी गई है कि इन्द्रिय का (निर्वृति का) ग्रहण दर्शन है, उपकरण का ग्रहण व्यञ्जनावग्रह है और अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह [ज्ञान ] है । अवधिज्ञान के जो इन्द्रिय के समान शंखादि चिह्न बतलाये गये हैं उनके ऊपर जो भौतिक पदार्थों का प्रभाव पड़ता है उन सहित जब उन चिह्नों का संवेदन होता है तब उसे अवधिदर्शन कहते हैं और उसके अनन्तर जो अर्थज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। किसी मनुष्यकी आँख अच्छी हो तो इसीसे वह महात्मा नहीं कहा जाता और अन्धा या बहिरा होने से वह पापी नहीं कहलाता । मतलब वह कि इन्द्रियों के होने न होने से आत्माकी उन्नति अवनति निर्भर नहीं है । अवधिज्ञानके विषय में भी यही बात है । अवधिज्ञान पशुओंको, मनुष्योंको, देवोंको और पापी नारकियोंको भी होता है; मुनियोंको, श्रावकोंको, असंयमियोंको और मिध्यादृष्टियोंको भी होता है। मतलब यह कि अवधिज्ञान होने से आत्मोत्कर्ष भी होना चाहिये , यह नियम नहीं है । इससे भी मालूम होता है कि उसका दर्जा एक तरह की इन्द्रियके समान है। अवधिज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान माना जाता है । इन्द्रियज्ञानके सिवाय और किसी ज्ञानमें प्रत्यक्षता सिद्ध नहीं होती। इससे भी अवधिज्ञान एक प्रकार की इन्द्रियका ज्ञान है। 'अवधिज्ञान से भूत-भविष्य का ज्ञान होता है। इस कथन • का कारण दूसरा है । ऊपर ज्वालामुखी के उदाहरण में यह बात कही गई है कि पशुओं को महीनों पहिले ज्वालामुखी फटने का

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