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३९८ ] पाँचवाँ अध्याय में वे कौनसे विकार होते हैं जिनका प्रभाव वातावरण आदि पर पड़ता है और जिस प्रभाव का ज्ञान उन पशुओं को होता है ! उन विकारों को हमारी इन्द्रियाँ नहीं जान पाती, इसका कारण विषय की रूक्ष्मता है, या उनके और कोई इन्द्रिय होती है जिसकी खोज हम नहीं कर पाये हैं-अभी तक यह एक जटिल समस्या ही है। जैन धर्म ने पशुओं को भी अवधिज्ञान माना है, इससे मालूम होता है कि वहाँ पाँच इन्द्रियों से भिन्न किसी अज्ञात इन्द्रिय के ज्ञान को अवधिज्ञान कहा है, जिस इन्द्रिय का स्थान किसी एक जगह नियत नहीं हैं। अवधिज्ञान का भी शरीर में कोई स्थान होता है इस बात से अवधिज्ञान एक प्रकार की विशेष इन्द्रिय का ज्ञान ही मालूम होता है। यह भी सम्भव है कि पाँच इन्द्रियों से भिन्न एक नहीं अनेक इन्द्रियाँ हों, जिन्हें अवधिज्ञान कहा गया हो ।
ऊपर जो ज्वालामुखी का उदाहरण देकर विषय समझाया गया है, सम्भव है उस तरह की असाधारण इन्द्रिय या इन्द्रियाँ किसी किसी असाधारण मनुष्य को भी होती हों। जैनशास्त्रों के अनुसार पशुओं की अपेक्षा मनुष्यों को अवधिज्ञान उच्च श्रेणीका हो सकता है। इस प्रकार उच्च श्रेणी की इन्द्रिय रख करके भी मनुष्य दूसरे को अवधिज्ञान का स्वरूप नहीं बता सकता। जिस प्रकार जन्मांध को रूपका स्वरूप समझाना असम्भव है, उसी प्रकार अवधिरहित पुरुष को अवधिका स्वरूप समझाना असम्भव है ।
अवधिज्ञानको कोई असाधारण इन्द्रिय मानने से अवधिदर्शन का स्वरूप भी समझ में आने लगता है। सर्वन के प्रकरण में यह कहा गया है कि आत्मप्रहण दर्शन है और अर्थमहण ज्ञान