Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 390
________________ पाँचवाँ अध्याय ३ - वाक्यों के समूहको ( आलापक = छेदक पैराग्राफ ) पढ ३८४ ] मानना । ४ - सम्प्रदाय - परम्परा के नष्ट हो जाने से पद का प्रमाण वास्तव में अप्राप्य है । इन चारों मतों में पहिला ही मत ऐसा है जो ठीक मालूम होता है। फिर भी तपरिमाणकी विशालता अस्वाभाविक बनी ही रहती है या अतिशयोकि मालूम होती है । परन्तु वर्तमान के श्वेताम्बर सूत्र देखने से इस शंकाका समाधान हो जाता है । - सूत्र साहित्य में, फिर चाहे वह जैनियों का हो या बौद्धों का हो उसमें, हरएक बात के वर्णन रहते हैं, जोकि बारबार दुहराये जाते हैं । जैसे कहीं पर एक रानीका वर्णन आया । कल्पना करो उस वर्णन में एक हज़ार पद लगे, अब अगर किसी सूत्र में सौ रानियों के नाम आये तो सब के साथ एक एक हज़ार पद का वर्णन न तो लिखा जायगा, न बोला जायगा । परन्तु एक पद लिख कर ' इत्यादि ' कहकर प्रत्येक के साथ एक एक हज़ार पद समझे जायेंगे | इस प्रकार सौ रानियों के नाम लिखने से ही एक लाख पद बन जायेंगे । इसी प्रकार राजा, राजकुमार, राजपुत्री, वन, नगर उपवन, मंदिर, नदी, तालाब, श्रावक, श्राविका, मुनि, आर्जिका, तीर्थंकर आदि सबके वर्णन हैं । इनमें से एक एक नाम के आने से ही सैकड़ों पद बन जाते हैं । यही कारण है कि सूत्र के लाखों पद कहे जाते हैं । परन्तु उनके ज्ञान के लिये लाखों पद नहीं पढ़ना पढ़ते । इस ढंग से दस पाँच हज़ार पदों की पुस्तक के लाखों पद बताये जा सकते हैं । जैनसूत्रों की पदगणना इसी आधार पर हुई है ।

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