Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 394
________________ अवधिज्ञान [ ३९१ उसके अनेक रहस्य प्रगट हो गये हैं । इस समय अलौकिक घटनाओं का वर्गीकरण ही विज्ञान नहीं कहला सकता, किन्तु अब तो उसके रहस्य जानने की जरूरत है या उसके रहस्य की तरफ ठीकठीक संकेत करने की ज़रूरत है । आज से कुछ वर्ष पहिले जो बातें अलौकिक चमत्कार समझी जाती थीं, वे आज प्रकृति के ज्ञात नियमों के भीतर आ गयी हैं । जिन घटनाओं के मूल में भूत-पिशाचों की या चमत्कारों की कल्पना की जाती है वे आज शारीरिक चिकित्सा - शास्त्र की अंगरूप हो गई हैं । यद्यपि आज मनोविज्ञान बिलकुल बाल्यावस्था में शैशवावस्था में है फिर भी इतना तो मालूम होने लगा है कि अमुक घटना का सम्बन्ध अमुक विज्ञानसे है । जिस समय मनोविज्ञान युवावस्था में पहुंचेगा तथा अन्य विज्ञान भी प्रौढ़ बनेंगे, उस समय अलौकिक चमत्कारों या अलौकिक ज्ञानों के लिये जगह न रह जायगी । जैन शास्त्रों में अवधि और मनः पर्यय का जो वर्णन है वह भले ही अलौकिक हो परन्तु उसके मूल में उसका लौकिक रूप क्या है, यह खोजने की चीज़ है । जब हम अँधेरे में हाथ डालते हैं तब इच्छित वस्तुके ऊपर ही हमारा हाथ नहीं पड़ता किन्तु बीसोंबार इधरउधर भटकता है । इसी प्रकार अज्ञात जगत् की खोजमें हमारी कल्पना - बुद्धि की भी यही दशा होती है । अवधि, मनः पर्यय आदि अलौलिक विषयों में भी यही दशा हुई है : । आज अवधि मन:पर्यय का स्वरूप इतना विशाल बना दिया गया है कि उसपर विश्वास होना कठिन है । शाखानुसार

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