Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

View full book text
Previous | Next

Page 392
________________ seaज्ञानके भेद [ ३८७ के अनुसार कुल नाम एक सौ चौरासी संख से भी अधिक होते हैं । इस प्रकार अनेक स्वर व्यंजनों के संयोगवाले जो अक्षर बताये गये हैं, वे वास्तव में अक्षर नहीं हैं किंतु श्रुतज्ञान के एकएक अंश के नाम हैं जिन अंशों को यहां अक्षर कहा गया है । जब हम कहते हैं कि एक पद में १६३४८३७०८८८ अक्षर हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि पदज्ञानी को क ख आदि इतने अक्षरों का उच्चारण करना पड़ता है, या इतने अक्षरों को जानना पड़ता है । उसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि पदज्ञानका ज्ञान अक्षरज्ञानी से सोलह अर्थ चौतीस करोड़ आदि गुणा उच्च है । इस विवेचन से अक्षरों की इतनी अधिक गणना और पद का विशाल परिमाण समझ में आ जाता है 1 १ एकसौ चौरासी संखसे भी अधिक अक्षर अपुनरुक्त कहे जाते हैं । परन्तु क्या किसी पुस्तक में एक अक्षर दो बार नहीं आता ! एक हज़ार शब्दों के बारबार प्रयोगसे बड़े से बड़ा पोथा बन सकता है और उस में ज्ञानका अक्षय भंडार रक्खा जा सकता है और उससे अधिक अपुनरुक्त शब्दों में ज्ञानकी सामग्री कम रहसकती है । जैन सूत्रों में भी एकही शब्द सैकड़ों बार आता है, तब फिर अपुनरुक्त अक्षरोंका परिमाण बतानेकी आवश्यकता क्या है ? और उसका व्यावहारिक उपयोग भी क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर भी इसी बात से हो जाता है कि उपर्युक्त अक्षर, अक्षर नहीं है ★ किन्तु ज्ञानाक्षरों के जुदे जुदे नाम हैं। नामोंको अपुनरुक्त होना चाहिये अन्यथा नाम रखनेका प्रयोजन ही नष्ट हो जाता है । इसलिये वे A 'सब अक्षर अपुनरुक्त बनाये गये हैं । C

Loading...

Page Navigation
1 ... 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415