Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 389
________________ श्रुतज्ञानके भेद [३८३ ८ कर्म प्र. १८०००००० १.०८०.. ९ प्रत्याख्यान ८१ लाख ८१ लाख १० विद्यानुवाद ११०००००० ११००००० ११ कल्याणवाद अवंध्य २६ क. २६ करोड़ १२ प्राणवाद १३ करोड १५३००००० १३ क्रिया विशाल ९ करोड ९ करोड १४ लोकबिन्दु १२५००००००, १२५०००००० इसके अतिरिक्त परिकर्म सत्र प्रथमानुयोग और चूलिकाके भी पद हैं जोकि कराड़ों की संख्या में हैं । मैं कहचुका हूँ कि कोई भी मनुष्य इतने पदोंकी रचना तो क्या, उच्चारण भी नहीं करसकता। तब क्या शास्त्र की महत्ता बताने के लिये ही यह कल्पना की गई है ! अथवा इस में कुछ तथ्य भी है ? मेरे खयालसे इस में कुछ तथ्य अवश्य है । इस बात को सिद्ध करने के लिये पहिले 'पद' पर विचार करना जरूरी है। दिगम्बर सम्प्रदाय में उस पद के परिमाणके विषय में मतभेद नहीं है जिससे श्रुतका परिमाण बताया जाता है । दिगम्बर सम्प्रदायका यह मत कोई कोई श्वेताम्बराचर्य भी मानते हैं । परन्तु इस मत के अनुसार श्रुतका जीवनभर उच्चारण भी नहीं हो सकता इसके अतिरिक्त चार मत और हैं १-विभक्कि सहित शब्दको एक पद मानना। जैसे करेमि' 'भन्ते' ये दो पद हुए। २-वाक्य को पद मानना ।

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