Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 387
________________ रुतज्ञान के मेद [३८१ सी हजार छ: सौ इक्कीस है। श्वेतांबर संप्रदाय में भी करीब करीब यही संख्या है। सिर्फ चौरासी हजार छःसौ इक्कीस के बदले छयासी हजार आठसौ चालीस है । एकतो किसी आदमी का सब काम बंद करके जीवन भर दिनरात इस प्रकार रचना करते रहना कठिन है; अगर कदाचित् करे भी तो इतने श्लोक बनाना कठिन है। अगर बना भी ले तो वह एक पदका तीसरा हिस्साही होगा। एक पद को पूरा करना भी मुश्किल है, फिर एक अर्ब बारह करोड़ से भी अधिक पदों का बनाना या पढ़ना असंभव ही है।। इसके बाद अक्षर के प्रमाण पर विचार करने से आश्चर्य और भी अधिक होता है । जैन शास्त्रों में तेतीस व्यञ्जन, सत्ताईस स्वर [नव स्वर 'हस्त्र दीर्घ लुत के भेद से] अनुस्वार विसर्ग जिहामूलीय और उपध्मानीय इस प्रकार ६४ मूलाक्षर हैं। इनके द्विसंयोगी त्रिसंयोगी आदि भंग बनाने से एक सौ चौरासी शंख से १ भी अधिक अक्षर बनते हैं । बहुत से अक्षर तो ऐसे हैं जिन में सत्ताईस स्वर मिश्रित होते हैं । एक अक्षर में एक से अधिक स्वर का उच्चारण असंभव है । अगर स्वर दो हैं तो अक्षर भी दो हो जाते हैं । तेतीस व्यञ्जनों के साथ सचाईस स्वर लगाना, फिर उसे अक्षर कहते रहना, अक्षरका अक्षरत्व नष्ट कर देना है । इस प्रकार अक्षरका स्वरूप, पदका स्वरूप ठीक नहीं बैठना, न उसकी विशाल संख्या ही विश्वसनीय मालूम होती है। (१) १८४४६७४४.७३७०९५५१६१५ [इस लंबी संख्या का संक्षिप्त नाम 'एक हि' है।

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