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मतभेद और आलोचना [ २९७ का है । आत्मकल्याणकारी उपदेश से जो संज्ञा होती है वह दृष्टिवादोपदेशिकी है । वास्तव में यही संझिश्रुत है ।
असंझिश्रुत-असंज्ञी जीवों का जो इरुत होता है वह असंशिश्रुत कहलाता है।
सम्यक्रु त-सच्चे उपदेश से उत्पन्न ज्ञान सम्यक् इरुत है । मिथ्याश्रुत-मिथ्या उपदेश से उत्पन्न ज्ञान मिथ्याइरुत है ।
जैन ग्रन्थों में, जैनग्रन्थों को सम्यक् रुत कहा है और जैनेतर ग्रन्थों को मिथ्याश्रुत कहा है । परन्तु सम्यक् का अर्थ किसी सम्प्रदायरूप करना ठीक नहीं है । सत्य कहीं भी हो वह सम्यक् इरुत है, चाहे जैन-ग्रन्थ हो या जैनतर ।
सादि अनादि सान्त [ सपर्यवसित ] अनन्त-ये भेद सामान्य-विशेष की अपेक्षा से हैं । सामान्य अपेक्षा से अनादि अनन्त है और विशेष अपेक्षा से सादि सान्त है।
गमिकश्रुत-एक वाक्य जब कुछ विशेषता के साथ बारबार आता है तब गमिकररुत कहलाता है और इससे भिन्न अगमिक कहलाता है । अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट का विस्तृत विवेचन आगे किया जाता है।
इन सात प्रकार के भेदों में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य भेद ही अधिक प्रसिद्ध और विशेष उपयोगी है । मैं पहिले कह चुका हूँ कि दूसरों के अभिप्राय का ज्ञान इरुत है । इसलिये केवल धर्मशास्त्र ही श्रुत नहीं कहलाता किन्तु प्रत्येक शास्त्र रुत है। गणित इतिहास आदि सभी शास्त्र श्रुत हैं। परन्तु यहां जो अंगप्रविष्ट और