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३०६] पाँचवाँ अध्याय ही इस क्रान्ति के प्रवाह का असर पड़ा हो, सो बात नहीं है किंतु श्वेताम्बर आचार्यों के ऊपर भी उसका उतना ही प्रभाव पड़ा जितना कि दिगम्बरों पर । . खैर, विकार सब में आया है, पूर्ण प्रामाणिक कोई नहीं है, चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर हो । शाखाओं और उपशाखाओं से वृक्ष का अनुमान किया जा सकता है पस्तु उसमें समग्र वृक्ष दिखाई नहीं दे सकता । एक स्वर से समग्र जैनाचार्य भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि श्रुत विच्छिन्न होगया है । ऐतिहासिक निरीक्षण करने से भी यह बात सिद्ध होती है कि आज म. महावीर के वचन उपलब्ध नहीं होते, और शास्त्रों में सैंकड़ों वर्षों तक परिवर्तन (न्यूनाधिकता) होता रहा है । ऐसी अवस्था में एक महान प्रश्न खड़ा होता है कि श्रुतनिर्णय कैसे किया जाय और वर्तमान शास्त्रोंका क्या उपयोग है ?
इसका उत्तर स्पष्ट है हमें शास्त्रों को मजिस्ट्रेट नहीं, गवाह ( साक्षी ) बनाना चाहिये, उनकी जाँच करना चाहिये, और जो बात परीक्षा में ठीक उतरे वही मानना चाहिये और बाकी को विकार समझकर छोड़ देना चाहिये । आचार्य समन्तभद्र ने शास्त्र का एक बहुत अच्छा लक्षण बतलाया है । सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतार में भी यह श्लोक पाया जाता है।।
आतोपज्ञमनुलंध्यमदृष्टेटविरुद्धकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापयघट्टनम् ॥ अर्थ-[१] जो आप्त [ सत्यवादी ] का कड़ा हुआ हो, [२] जिसका कोई उल्लंघन न कर सकता हो, [३] जो प्रत्यक्ष और