________________
३३८ ]
पाँचवाँ अध्याय
परिकर्म के भेदों का विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है परन्तु इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि इस में लिपिविज्ञान [ मातृकापद ] गणित, न्यायशास्त्र [ नय ] आदि का वर्णन था ।
सूत्र - दृष्टिवाद का दूसरा भेद सूत्र है । पूर्वसाहित्य का सूत्र रूप में लिखा गया सार 'सूत्र' (१) कहलाता था । परिकर्म के बाद सूत्ररूप में जैनागम का सार पढ़ाने के लिये इनकी रचना हुई थी । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार इसमें मिथ्या मतों की सूचना है । दृष्टिवाद का मुख्य विषय सब दर्शनों की आलोचना है इसलिये सूत्र में भी उस आलोचना का साररूप में कथन हो यह उचित ही है । तात्पर्य यह है कि दोनों सम्प्रदायों में सूत्र की परिभाषा एकसी है । सूत्र अठासी हैं अर्थात् बाईस सूत्र चारचार तरह से अठासी तरह के हैं । ये चार प्रकार, व्याख्या करने के ढंग हैं | व्याख्या के चार भेद ये हैं- छिन्नच्छेदनय, अच्छिन्नच्छेदनय, त्रिकनय, चतुर्नय |
I
च, ततस्त्रिमी राशिभिचितयन्तीति त्रैराशिकाः तन्मतेन सप्तापि परिकर्माणि उच्यन्ते एतदुक्तम्भवति पूर्व सूरयो नयचिन्तायाम् त्रैराशिक मतमवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्माणि त्रिविधयाऽपि नयचिन्तया चिन्तयन्तिस्म । नन्दी टीका ५६ (१) सव्वास्स पुव्वगयस्य सुयस्य अत्थस्सय सुयगत्ति सूयणत्ताउ वा सुया भणिया जहाभिहाणत्था । चूर्णि । सूत्रमपि सूत्रयति कुदृष्टिदर्शनानीति | गो० जी. ३६१
-
(२) उज्जुसुयं, परिणयापरिणयं, बहुमंगिअं, विजयचरियं. अनंतरं, परंपर, मासाणं, संजू, संमिण्णं, आहव्वायं, सोवत्थिअवत्तं, नंदावतं. बहुलं, पुट्टापुढं, विआवत, एवंभूअं, दुआवसं, वत्तमाणप्पयं समभिरूढं, सब्बओभ६, पस्सासं, दुप्पडिगाहं ।