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गणित ही बहुत अाई जाती हो प
३३६ ] पाँचवाँ अध्याय बहुत जोर दिया था । इसलिये कोष और व्याकरण निरुपयोगी थे तथा लिखने की प्रथा बहुत कम थी । आगमको लोग मुनकर ही स्मरण में रखते थे, इसलिये लिखने पढ़ने की शिक्षा भी आवश्यक न थी । सिर्फ गणित ही बहुत आवश्यक था । सम्भव है और भी किसी विषय की थोड़ी बहुत तैयारी कराई जाती हो परन्तु गणीत की मुख्यता होने से परिकर्म में गणित के विषय को समझने के पहिले उसमें सरलता से ठीक ठीक प्रवेश करने के लिये जिस का शिक्षण लेना पड़ता है, वह परिकर्म कहलाता है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में परिकर्म के पांच भेद बतलाये गये हैं(१) चन्द्रप्रज्ञप्ति (२) सूर्यप्रज्ञप्ति, (३) जम्बूदीप प्रज्ञप्ति, (४) द्वीपसमुद्र प्रज्ञप्ति, (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति । चन्द्रसूर्य आदि की गतियों और जम्बूद्वीप आदि के वर्णनों में अंकगणित और रेखागणित की अच्छी शिक्षा मिल जाती है । व्याख्याप्रज्ञप्ति में लक्षणों का परिचय कराया जाता है । एक तरह से यह पारिभाषिक शब्दों के कोष की शिक्षा है ।
. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में परिकर्म के सातभेद कहे गये हैं । सिद्ध सेणिआ, मणुस्ससेणिआ, पुट्ठसणिआ, आगाढ़ सेणिआ, उवसंपज्जणसेणिआ, विप्पजहण सेणिआ, चुआचुअसेणिआ। इनमें से पहिले दो के चौदह (१) चौदह भेद और पिछले पांच के ग्यारह ग्यारह (२) भेद हैं । इस प्रकार कुल तेरासी (८३) भेद हैं।
१ माउगापयाई, एगठिया, पयाई, अट्ठपयाई, पादोआमासपाई, केउभूअं, रासिवद्धं, एगगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउभअं, पडिग्गहो, संसारपटिग्गहो, नंदावतं, सिद्धावत्त । नन्दी सूत्र ५६ ।
२ उपर्युक्त चौदहमें से प्रारम्भ के तीन छोड़कर।
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