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Roasteके भेद
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धीन करदी गई । जैनियों में जो उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल की कल्पना की गई है उसका मूल, कथासाहित्य के इसी वैज्ञानिक सुधार में है । प्रथम युगमें मनुष्य और देव बहुत पास पास है । इनमें परस्पर सम्बन्ध होता है, एक दूसरे पर विजय भी प्राप्त करते हैं । द्वितीय युगमें देवों का स्थान तो वैसाही अद्भुत बना रहता है,
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परन्तु मनुष्यों का स्थान छोटा हो जाता है । विद्याधर- मनुष्यों में देवों के समान कुछ अद्भुतताएँ रह जाती हैं, परन्तु देवों से बहुत कम | शरीर आदि में सब मनुष्य प्राय: समान होते हैं । बलवान होने से कोई मनुष्य पहाड़ जैसा नहीं माना जाता ।
तीसरे युगमें मनुष्य तो बिल्कुल मनुष्य हो जाता है, परन्तु प्रेमवश, भक्तिवश, कृपावश देव उसे सहायता पहुंचाते हैं ।
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चौथे युग में देवों का सम्बन्ध टूट जाता है । प्रकृति के साधारण नियमानुसार सब कार्य होने लगते हैं । यह आधुनिक युग है । कथासाहित्य के इन चार युगों में जैन पुराणों का युग दूसरा है । उनमें प्रथम युगकी कथाएं भी दूसरे युगके अनुरूप चित्रित की गई हैं। यह कोई इतिहास नहीं है, किन्तु प्रथम युग की कथाओं का अर्धवैज्ञानिक संस्करण है । यही प्रथम युग की कथाओं से द्वितीय युगकी कथाएं मालूम होती हैं ।
कारण है कि
कुछ विश्वसनीय
द्वितीय युगके संस्करण में जैनियोंने कथाको जो जैनीरूप दिया है, उसमें कथा को रूपान्तरित तो किया ही है—जैसे, कैलाश उठाने की घटना जो कि शिवके साथ सम्बन्ध रखती है