Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 374
________________ ३६८] पाँचवाँ अध्याय . .. तीसरी बात यह कि जब दोनों संप्रदायके व्यक्ति विद्वान और मुनिवेषी हों और परस्पर विरुद्ध लिखते हों तो नि:पक्ष परीक्षक दोनों में से एक की बात पर विश्वास नहीं रख सकता। उसके लिये दोनों समान हैं। बुद्ध, बशिष्ट आदि की जो कथाएं जैनशास्त्रों में पाई जाती हैं, वे भी इसी सांप्रदायिक पक्षपात का फल हैं, इसलिये ऐति हासिक दृष्टि से उनका कुछ भी मूल्य नहीं है । कथाकारों में निंदा करने के भाव हैं, यह बात उन कथाओं को पढ़ने से स्पष्ट मालूम होती है। ___ अस्वाभाविक होने से कथावस्तुकी कल्पितता सिद्ध हो जाती है। जैसे आचार्य कुन्दकुन्द का सशरीर विदेह जाना । मूर्ति में से दूध की धारा छूटना, रत्नवर्षा, सुवर्णवर्षा, केशरवर्षा आदि अतिशयोंके आधार पर रची गई कथाएं अप्रामाणिक हैं । हां, देव-दानवों का अर्थ मनुष्य विशेष करने से अगर कथा की संगति बैठती हो तो इस तरह वह कथावस्तु प्रामाणिक हो सकती है। परन्तु वास्तविक घटना कारणवश रूपान्तरित हुई है, इस बात के सूचक कारण अवश्य मिलना चाहिये । घटनाओं की समता कथावस्तु को संदेहकोटि में डाल देती है। जैसे हरिभद्र के शिष्यों की कथा और अकलंक नि:कलंक की कथा आपस में इतनी अधिक मिलती है कि यह कहना पड़ता है कि एकने दूसरे से नकल अवश्य की है, अथवा दोनों ने किसी . तीसरे से नकल की है। अगर दूसरे और बाधक कारण मिल

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