Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 378
________________ ३७२ ] पाँचवाँ अध्याय विववर्णन की भी आवश्यकता है। जो लोग मर्मज्ञ हैं, उनको कथासाहित्य और विश्ववर्थन की जरा भी ज़रूरत नहीं है, परन्तु जो लोग सदाचार के सहजानन्द को प्राप्त नहीं कर पाये, वे स्वर्ग का प्रलोभन और नरक का भय चाहते हैं और चाहते हैं सीताराम की विजय और रावण का सर्वनाश, ऐसे ही लोगों के लिये स्वर्णेका मनोहर वर्णन करना पड़ता है, नरकों का बीभत्स और भयंकर चित्रण करना पड़ता है, भोगभूमिके अनुपम दाम्पत्य सुखका दर्शन कराना पड़ता है । धर्मशास्त्रकार कोई तीर्थकर या आचार्य इस बात की ज़रा भी पर्वाह नहीं करता कि मेरा भौगोलिक वर्णन सत्य है या असत्य, वह तो यह देख्ता है कि मेरे युपके मनुष्यों के लिये यह वर्णन विश्वसनीय है या नहीं ? यदि उसके युग में बह विश्वसनीय है, और लोगों को सदाचारी बनानेके लिये वह उपयुक्त है तो उसका काम, सिद्ध हो जाता है; वह असध्य होकरके भी सत्य है । " महात्मा महावीर के युग्गों, या उसके कुछ पछि जब भी जैन भूगोल तैयार हुआ हो, उसका लक्ष्य यही था । इसके लिये उन्हें जो सामग्री मिली, उसको कल्पनासे बढ़ाकर, सुन्दर बनाकर उनने जैनमूगोल की इमारत तैयार कर दी। यह भौगोलिक वर्णन.. कर्मतत्त्वज्ञानरूपी देवताका मन्दिर है । यदि आज भौगोलिक वर्णनरूपी मन्दिर जीर्णशीर्ण हो गया है, वर्तमान वातावरण में अगर उसका स्थिर रहना असम्भव हो गया है, तो कोई हानि नहीं है । हमें दूसरा मन्दिर बनालेना चाहिये । कर्मतत्त्वज्ञानरूपी देवता की मूर्ति उस नये मंदिर में स्थापित करना चाहिये । I

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