Book Title: Jain Dharm Mimansa 02
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 383
________________ कृतज्ञान के भेद ३७७ अभ्भ्रान्त और पूर्ण थी उतनी भौतिक विषयों में कदापि नहीं थी । इसलिये धर्मशास्त्र के भीतर आये हुए किसी भौतिक विषय में अगर आज कुछ निरुपयोगी मालूम हो, असत्य मालूम हो तो इससे धर्मशास्त्र का महत्व कम नहीं होता। इसलिये खींचतान कर निरुपयोगी को उपयोगी, असत्यको सत्य, अनुन्नत को उन्नत सिद्ध करने की ज़रा भी ज़रूरत नहीं है, और न धर्मशास्त्रों के भीतर आये हुए अन्य शास्त्रों को धर्मशास्त्र मानने की जरूरत है। 1 अङ्गबाह्य अङ्गबाह्य का स्वरूप बतलाया गया है । गणधरों के पीछे होनेवाले आचार्यो की यह रचना है । यद्यपि महात्मा महावीर के पीछे करीब ढाई हजार वर्षमें जितना जैनधर्मसाहित्य तैयार हुआ है, वह सब अङ्गबाह्य साहित्य ही है, परन्तु आजकल अमुक प्राचीन ग्रंथोंके लिये यह शब्द रूढ़ होगया है । अंगप्रविष्टकी तरह अंगबाह्य साहित्य नियत नहीं है इसीलिये उमास्वाति आदि आचार्य इसके नियत भेद नहीं कहते हैं । वे अंगप्रविष्टके तो बारह भेद बतलाते हैं परन्तु अंगबाह्य के विषय में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि वह अनेक ( १ ) प्रकारका है । अकलंक देव भी अंगवास के भेदों को नियत नहीं करते । वे भी 'आदि' शब्द से कहजाते हैं । परन्तु इसके बाद गोम्मटसार में चौदह भेद मिलते हैं । १ - सामायिक - आत्मामें लीन होना, सामायिक है। इस शाखमें सामायिक की विधि, समय आदिका वर्णन है । (१) श्रुतं मतिपूर्वद्वयमेक द्वादश मेदं । १००० ॥ (१) तदनेकविधं कालिकोत्कलिकादिविकल्पात् । रा. वा. १-२०-१४ ॥

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