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श्रुतज्ञान के भेद
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किया है अर्थात् चाणक्य के सांप उस मुनि संघ को जला डाला है । तब सब के सब मुनि आठ कर्मों को नाश कर मुक्त (१) हुए हैं ।
बे इतिहास की ज़रा भी जाते हैं कि जम्बूस्वामी
कबि महाशय आखिर कवि हैं, पर्वाह नहीं करते। वे इस बात को भूल के बाद किसी भी व्यक्ति को यहां केवलज्ञान नहीं हुआ और चाणिक्य का समय जम्बूस्वामी के सौ वर्ष बाद है, तब ये ५०० मुक्तिग्ामी कहां से आ गये ! महावीर के पीछे सिर्फ तीन ही केवली हुए हैं, सो भी ६२ वर्ष के भीतर । फिर क़रीब पौने दो सौ वर्ष बाद कदम इसने केवलियों का वर्णन करना कवि-कल्पना नहीं तो क्या है !
यह तो एक नमूना है परन्तु हमारा कथा - साहित्य, ही नहीं किन्तु सभी सम्प्रदायों का कथा-साहित्य, ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है ।
बात यह है कि लेखक का कोई लक्ष्य होता है । कथा तो उसका सहारा मात्र है । जब लेखक अपने धर्म को सार्वधर्म सिद्ध करना चाहता है, तब वह सभी धर्मों के पात्रों को अपने धर्म में चित्रित करता है । जब वह अपने धर्म और सम्प्रदायको प्राचीन सिद्ध करना चाहता है, तब वह प्रायः सभी अन्य सम्प्रदायों के संस्थापकों और संचालकों को आधुनिक और अपने धर्म से भ्रष्ट
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(१) पापी सुबुन्धुनामा च मंत्री मिध्यात्वदूषितः । समीपे तन्मुनीन्द्राण कारीषाभिं कुधीर्ददौ । ७३ । ४१ । तदा ते मुनयो धीराः शुक्लध्यानेन संस्थिताः हात्व कर्माणि निःशेषं प्राप्ताः सिद्धिं जगद्धितां । ७३२४२ ।