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श्रुतज्ञान के मेद [३३५ संग्रह है । पहिले म्यारह अंग इस अंग के सामने बहुत छोटे हैं और इसी अंग की सामग्री लेकर उपयुक्त ग्यारह अंग पीछे से बनाये गये हैं। चौदह पूर्व इसी अंग के भीतर शामिल हैं, जो कि जैनागम के सर्वप्रथम संग्रह हैं इसीलिये उनका नाम पूर्व है। यह बात आगे के विवेचन से मालूम होगी । आजकल यह अंग ग्यारह अंगों की तरह विकृत रूप में भी उपलब्ध नहीं है । इसका विवेचन इसके भेदप्रभेदों के विवेचन के बिना ठीक २ न होगा, इसलिये इसके भेदों का वर्णन किया जाता है । दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं—परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ।
परिकर्म-परिकर्म का अर्थ है योग्यता प्राप्त[१] करना सूत्र, अनुयोग, पूर्व आदि के विषय को समझने के लिये जो गणित आदि विषयों की शिक्षा है, वह परिकर्म है।
दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार इसमें गणित के करण (२) सूत्र हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि परिकर्म में प्रधानतया गणित का विवेचन है । यह बात ठीक भी है क्योंकि एक तो गणित से बुद्धि का विकास होता है, दूसरे उस समय कोष और व्याकरण आदि के ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि म. महावीरने लोकभाषा पर
(१) तत्र परिकर्म नाम योग्यतापादनं । तहेतुः शास्त्रमपि. परिकर्म किमुक्तम्भवति, सूत्रादिपूर्वगतानुयोगसूत्रार्थग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि । - नन्दसूित्र टीका ५६ ।।
(२) तश परितःसर्वतः कर्माणि गणितकरण सूत्राणि यस्मिन् तत्परिकर्म तश्च पचविधम् । -गोम्मटसार जीव-कांड टीका ३६१ ।