________________
३४८ ] पाँचवाँ अध्याय
गन्न आदि की एक गांठसे दूसरी गांठ तकके हिस्से को गडिका [१] कहते हैं। 'पोर' या 'गंडेरी' भी इसके प्रचलित नाम हैं । गन्ने की एक पोर में रसकी कुछ समानता और दूसरी पोर से कुछ विषमता होती है । इसी प्रकार एक एक गंडिका की कथाओं में किसी दृष्टि से समानता पाई जाती है जो समानता दूसरी गंडिका की कथाओं के साथ नहीं होती।
ऊपर के भेद प्रभेद हमारे साम्हने कुछ प्रश्न उपस्थित करते हैं जिससे हमारे कथासाहित्य पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है:
[क] मूल प्रथमानुयोग में भी तीर्थकर-चरित्र है और गण्डिकानुयोग में जो तीर्थकर-गडिका है उसमें भी तीर्थंकर-चरित्र है, तब दोनों में क्या अन्तर है ?
[ख] मूल प्रथमानुयोग यह नाम किस अपेक्षा से है ! क्या गंडिकानुयोग मूल नहीं है ? एक भेद के साथ हम 'मूल' विशेषण लगाते हैं. और दूसरे के साथ नहीं लगाते-इस भेद का क्या कारण है ?
[ग] भद्रबाहुगण्डिका का काल क्या है ? क्या महात्मा महावीर के समय में भी यह गंडिका होसकती है ! परन्तु उस समय तो भद्रबाहु का पता भी न था। यदि यह पीछेसे आई तो इसका यह अर्थ हुआ कि हमारा दृष्टिवाद अंग भी धीरे धीरे बढ़ता रहा है और महात्मा महावीर के पीछे इन गंडिकाओं की रचना हुई ।
(१) इश्वादीनां पूर्वीपरपर्वपरिच्छन्नो मध्यमागो गण्डिका । गण्डिकेव गाण्डका एकाधिकारा ग्रन्थपद्धतिरित्यर्थः । नन्दीसूत्र टीका ५६ ।