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पाँचवाँ अध्याय
होते रहे हैं । इस प्रकार कथासाहित्य बढ़ता ही रहा है और यह aढ़ना स्वाभाविक है ।
मालूम होता है कि म. महावीर के समय में जैन कथासाहित्य बहुत थोड़ा था । दूसरे अंग पूर्वो के पदों की संख्या जब लाखों और करोड़ों तक है तब प्रथमानुयोग की पदसंख्या सिर्फ पांच हज़ार है। इससे कथासाहित्य की संक्षिप्तता अच्छी तरह मालूम होती है ।
मैं पहिले कह चुका हूं कि दृष्टिवाद अंग से बाक़ी अंग रचे गये हैं । इस प्रकार बाकी अंग दृष्टिबाद के टुकड़े ही हैं । ऐसी हालत में यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि दृष्टिवाद के प्रथमानुयोग में से ही अन्य अंगों का कथासाहित्य तैयार हुआ है । ऐसी हालत में अंगों का कथासाहित्य पांच हज़ार पदों से भी थोड़ा होना चाहिये । परन्तु अंगों का कथासाहित्य लाखों पदों का है, यह बात उवासगदसा, अंतगड़, अणुत्तरोववाइयदसा, विपाकसूत्र आदि को पदसंख्या से मालूम हो जाती है । इससे मालूम होता है कि दृष्टिवाद के प्रथमानुयोग को खूब ही बढ़ाचढ़ाकर अन्य अंगों का कथासाहित्य तैयार किया गया है और अंगों के नष्ट हो जाने के बाद भी कथासाहित्य बढ़ता रहा है यहां तक कि वह वीरनिर्वाण के दोहज़ार वर्ष बाद तक तैयार होता रहा है ।
कथासाहित्य के रचने में और बढ़ाने में कैसी कैसी सामग्री ली गई है, उसके हम चार भाग कर सकते हैं।
१-म० महाबीर और उनके समकालीन तथा उनके पीछे होनेवाले अनेक व्यक्तियों के चरित्र । मूलप्रथमानुयोग का वर्णनीय विषय यही है ।"