________________
३४० ]
पाँचवाँ अध्याय
चतुर्नय (१) जैन मान्यता के अनुसार जब वह व्याख्या की जाती है तब वह चतुर्नयिक कहलाती है ।
पहिली दो व्याख्याएँ सम्बन्धासम्बन्धकी अपेक्षा से भेद बतलाती हैं और पिछली दो व्याख्याएं नय-विवक्षा की दृष्टि से भेद बतलाती हैं। चारों में दो जैन हैं और दो आजीवक । इस प्रकार बाईस सूत्र चार तरह की व्याख्या (२) से अठासी हो गये हैं ।
परिकर्म और सूत्रके इन वर्णनों से जैन सम्प्रदाय और आजीवक सम्प्रदाय के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है } अनेक इतिहासज्ञों का मत है कि आजीवक सम्प्रदाय जैन सम्प्रदाय में विलीन हो गया । उपर्युक्त विवरण से यह मत बहुत ठीक मालूम होता है । जैनियों ने आजीवकों के साहित्य को अपना लिया है । आजकल आजीवक साहित्य नहीं मिलता इसका एक कारण यह भी है ।
1
सूत्र के व्याख्याभेदों से यह भी पता चलता है कि आजीवक साहित्य की व्याख्या जैनमतानुसार की जाने लगी थी। जो कुछ विरोध मालूम होता था वह अच्छिन्नच्छेदनय के अनुसार दूर
(१) हत्येतानि द्वाविशतिः सूत्राणि स्वसमयसूत्रपरिपाट्यां स्वसमयवक्तव्यतामधिकृत्य सूत्र परिपाच विवक्षितायां चतुर्नयिकानि-संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्रशन्दमय चतुष्टयार्पितानि संग्रहादिनय चतुष्टयेन चिन्त्यन्ते इत्यर्थः ।
(२) इम्बेइआई बावीस सुत्ताई विन्नच्छेदन आणि ससमयसुत्तपरिवाडी, इन्वेइआई बावीसं सुचाइं अच्छिन्मच्छेअनइआणि आजीविअ सुत्तपरिवाडीए, sarआईं बावीसं सुत्ताई तिगणिआई तेरासिअसुत्तपरिवाडीए, बच्चे आई बावीसं सत्तारं चउक्कनइआणि ससमयसुतपरिवाढीए, एवामेव सपुव्वावरणं असीई सुखाई भवतीतिमवखायं । नन्दीसूत्रः ५६ ।