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पाँचवाँ अध्याय .कोई भी आचार सदाके लिये और सब जगहके लिये एकसा नहीं बनाया जासकता, इसलिये आचार शास्त्र अस्थिर है। परन्तु मुनियों के आचारकी अपेक्षा गृहस्थोंके आचारकी अस्थिरता कई गुणी है इसलिये गृहस्थाचारका कोई जुदा अंग न बनाकर गृहस्थोंकी दशाका वर्णन करके ही उस आचारका वर्णन किया गया है।
दिगम्बर सम्प्रदायमें इस अंगका नाम उपासकाध्ययन (१) है । परन्तु इस नामभेदसे कुछ विशेष अन्तर नहीं आता । नन्दीसूत्र (२) के टीकाकार श्री मलयगिरिने दशा का अर्थ अध्ययनही किया है । इसलिये दोनों नामों में कुछ अन्तर नहीं रहता। फिर भी उपासकदशा यह नाम ही उचित मालूम होता है, क्योंकि इसमें आचाराङ्गकी तरह मुनियोंके आचारका सीधा वर्णन नहीं है किन्तु श्रावकोंकी दशाके वर्णनमें उसका वर्णन आया है। कुछ लोग दशा शब्दका दस अर्थ करते हैं क्योंकि इसमें दस अध्ययन हैं परन्तु नामके भीतर अध्ययनोंकी गिनती आवश्यक नहीं मालूम होती। दूसरी बात यह है कि प्राकृतमें इस अंगका नाम 'उवासगदसाओ' लिखा जाता है । प्राकृत व्याकरणके नियमानुसार 'दसाओ' पद 'दसा' शब्दके प्रथमा के बहुवचनका रूप है जो गिनतीके 'दस' शब्दसे नहीं बनता किन्तु 'दसा' शब्दसे बनता है । प्राकृतके नियम बहुल (अनियत) __ माने जाते हैं इसलिये भले ही कोई गिनतीके 'दस का भी 'दसाओ'
(१) उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । त० राजवार्तिक १-२०-१५ ॥
(२) उपासकाः श्रावकाः तद्वताशुव्रतमुभवतादिक्रियाकलापप्रतिबद्धा . दशा-अभ्ययनानि उपासक दशाः।