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पाँचवाँ अध्याय .
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यह कथन भी टीक नहीं | क्योंकि जब द्वादशाङ्ग का सभी विषय म. महावीरका वचन कहाजाता है तब सिर्फ इस अंग में ही म.. महावीर के नाम के उल्लेखकी क्या आवश्यकता है ? अगर कोई ऐसा भी अंग होता जिसमें महावीरसे भिन्न व्यक्ति से कही गई कथाएँ होती तो इसके नाम के साथ ज्ञात (महावीर ) विशेषण लगाना उचित समझा जाता । इसलिये ज्ञात शब्द मानना और अर्थ महावीर करना उचित नहीं मालूम होता | इसलिये णायका अर्थ दृष्टांत करनाही टीक है । वह उपलब्ध अंगमें अ. कूल भी हैं अब प्रश्न यह हैं कि 'णाय' का संस्कृतरूप 'ज्ञात' किया जाय या 'न्याय' किया जाय । मैं यहाँ न्याय शब्दवा जो अर्थ करता हूँ वही अर्थ प्राचीन टीकाकाने 'ज्ञात' शब्दका किया है । परन्तु साधारण संस्कृत साहित्य में 'ज्ञत' इव्दवा 'उदाहरण' अर्थ कहीं नहीं मिलता। इसलिये 'गाय' शब्द की 'ज्ञात' संकृताया मुझे पसन्द नहीं अई । उसके स्थान में 'न्याय' रखना उचित सम्झा | न्याय शब्द संस्कृत साहित्य में 'उदाहरण' अर्थ मे खुत्र प्रचलित हुआ है । 'काकतालीयन्नाय' 'सूचीकटाह न्याय' 'देहली दीपक न्याय' आदि उदाहरणसंस्कृत साहित्य प्रचलित हैं। जो कि न्याय शब्द से कहे जाते हैं । इसलिये इस अंगका संस्कृत नाम 'न्यायधर्मकथा' उचित मालूम होता है ।
'न्यायधर्मकथा' इस नाम में कथा शब्दका कहानी अर्थ नहीं है किन्तु बथन - वहन - उपदेश देना अर्थ है । जिस अंग में दृष्टांत देकर धर्मका उपदेश दिया गया है, वह न्यायधर्मकथा अंग