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३१२ ) पाँचवाँ अध्याय
कापथघट्टन अर्थात कुमार्ग का निषेध करनेवाला । सत्य और असत्य का जिसमें एकसा महत्व हो वह शास्त्र नहीं कहला सकता । शास्त्र, सत्य का समर्थक और असत्य का विरोधी होगा। - जिसमें ये विशेषण हों, वही आप्त का कहा हुआ है वही शास्त्र है जिसमें इनमें से एक भी विशेषण कम होगा वह आप्त का कहा हुआ नहीं कहा जा सकता, फिर भले ही वह किसी के भी नामसे बना हो। प्रत्येक सम्प्रदायक शास्त्रों को हमें इसी कसौटी पर कसना चाहिये,
और जो सत्य हो, कल्याणकारी हो, उसीको शास्त्र मानना चाहिये। किसी संप्रदाय के अन्यों को विवेकहीन होकर शास्त्र मानना या अशास्त्र मानना मढ़ता है।
अंगप्रविष्ट अंगप्रविष्ट बारह अंगों में विभक्त है । १, आचार, २, सूत्रकृत ३, स्थान, ४, समवाय, ५, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६, न्यायधर्म कथा .७, उपासक दशा, ८, अन्त दशा, ९, अनुत्तरौपणदिक दशा, १०, प्रश्नव्याकरण,, ११, विपाकमुत्र, १२, दृष्टिवाद ।
१ आचार-इसमें आचार का खास कर मुनियों के आचार का विस्तार से वर्णन है । सब अंगोंमें यह मुख्य हैं इसलिये इसका नाम पहिले दिया गया है । इस अंगको प्रवचन का सार (१) कहा है ।
२ सूत्रकृत-इस अंगमें लोक अलोक, जीव अजीव, स्वसमय
आयारो अंगाणं पदम अंग दुवालसाहपि । इत्थ य मोक्खापाआ एस य सारो पर्वयणस्स ॥ आचाराङ्ग नियुक्तेि. ९ ।