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पाचवा अध्याय होने से राजवार्तिककी १ परिभाषाके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता।
३-स्थान- इस अंगमें एकसे लेकर दश (२) भेदों तकको वस्तुओंका वर्णन है । इसमें विशेषतः नदी, पहाइ, द्वीप, समुद्र, गुफा आदिका विस्तृत वर्णन पाया जाता है।
गिम्बर सम्प्रदायके अनुसार इसमें दश धर्म की मर्यादा नहीं है और स्थानों का प्रतिपादन भी कुछ दूसरे ढंगसे है (३) । श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार इस अंगडे पहिले एक एक संख्यावाली यस्तुओं। वर्णन है, फिर दो दो संख्यावाली, फिर तीन तीन आदि। दिगम्बर सम्दायके अनुसार एक वस्तुका एक खा, फिर उसीका दो रूपमें, फिर तीन रूपमें, इस प्रकार उत्तरोत्तर वर्णन है।
४-समवाय-इस अंमें एकसे लेकर सौ स्थान (४) तककी वस्तुओं का वर्णन है । दिगम्बर सम्प्रदायके (५) अनुसार इस अंगमें सब पदार्थों का समवायं विचारा जाता है अर्थात् द्रव्यक्षेत्र आदिकी
(:) सूत्रकृते ज्ञान विनय प्रशापना कल्प्यायल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधमक्रिया प्ररुप्यन्ते । तत्त्वार्थराजवार्तिक १.२०.१२ ।
(२) एक संख्यायो द्विसंख्यायां यावद्दशसंख्याया ये ये भावा यथा यन्तिमवन्ति तथा तथा तेते प्राप्यंन्ते । नदीसत्र टीका ४७
(३) जीवादिद्रव्य कायेकोत्तरस्थानप्रतिपादकं स्थानं । श्रुतभक्ति. टीका ७ स्थाने अनकाश्रयाणामानाम् । निर्णयः क्रियते । त• राजवार्तिक १.२०.१२ ।
(४) एकादिकानाकोत्तराणां शतस्थानकम् यावाद्विवर्तितानाम् भावानान् प्ररूपणा आख्यायते।
(५) समवाय सर्वपदार्थानाम् समवायश्चिन्त्यते । स चतुर्विधः द्रव्योअकालमावविकल्पः . ."" इत्यादि । त. राजवार्तिक १.२०-१३