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मरुतज्ञान के मेद [३११ छना है तो सम्भव, परन्तु उसके साथ हाथ जल जायगा यह निश्चित है। इसी प्रकार शास्त्र वही है जिसके उल्लंघन करने से हमारा हाथ जल जाय अर्थात् हम दुःखी होजाय । धर्म कल्याण का मार्ग है अगर हम धर्म का पालन नहीं करेंगे तो उसका अच्छा फल न होगा । इसलिये कहा जाता है कि धर्म का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । जिस शास्त्र में उस धर्म का प्रतिपादन है वह भी धर्म की तरह अनुल्लंघ्य कहलाया।
तीसरा विशेषण यह है कि वह प्रत्यक्ष अनुमान के विरुद्ध न हो। इसका अर्थ यह है कि वह असत्य न हो। आगर असत्य मालूम हो तो हमें निःसंकोच उसका त्याग कर देना चाहिये । मतलब यह कि परीक्षा करना आवश्यक है।
तत्वोपदेशकृत् अर्थात् सार वस्तु का उपदेश करने वाला। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, उसके लिये वह सतत प्रयत्न करता है परन्तु अज्ञान के कारण ठीक प्रयत्न नहीं करता । उसे ठीक प्रयत्न बताने वाला शास्त्र है । तत्व-सार-सुख-कल्याण आदि का एक ही अर्थ है । जो सुखी बनने का उपदेश दे वह शास्त्र ।
सार्व अर्थात् सबके लिये हितकारी । सब का अर्थ क्या है और सर्वहित क्या है, यह बात प्रथम अध्याय में विस्तार से बतादी गई है । बहुत से प्रयत्न हमें अपने लिये सुखकर मालूम होते हैं परन्तु वे दूसरों का भारी अनर्थ करते हैं। ऐसे कार्य अन्त में हमें भी दुःखी करते हैं । इसका भी विवेचन प्रथम अध्याय में हुआ है। इसलिये शास्त्र सबके कल्याण का उपदेश देनेवाला होना चाहिये ।