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पाँचवाँ अध्याय
अंबाह्य भेद किये गये हैं, वे सब जैन-धर्मशास्त्र की अपेक्षा से हैं । अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य
तीर्थंकर के वचनों के आधार पर उनके मुख्य शिष्यों [ गणधरों ] द्वारा जो ग्रन्थरचना की जाती है, वह अंगप्रविष्ट [१] Red कहलाता है उसके बाद अंगप्रविष्ट के आधार पर जो अन्य आचार्यों के द्वारा ग्रन्थ रचना की जाती है वह अंगबारुत है । मतलब यह है कि अंगप्रविष्ट मौलिक शास्त्र है और अंगवास उसक आधार पर बना हुआ है । अंगप्रविष्ट प्रत्यक्षदर्शी के वचनों का संग्रह कहा जाता है, वह अनुभव-मूलक है, जब कि अंगबाह्य परोक्ष-दर्शियों की रचना है ।
जैन ग्रंथों के जिस प्रकार अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य भेद किये गये हैं उसी प्रकार प्रत्येक शास्त्र के किये जा सकते हैं । महात्मा बुद्ध के उपदेशों के संग्रह को हम अंगप्रविष्ट और उस सम्प्रदाय के अन्य धर्मग्रंथों को अंगबाह्य कह सकते हैं । इसी प्रकार वैदिक धर्म में वेद अंगप्रविष्ट, बाक़ी अंगबाह्य | ईसाइयों में बाइबिल अंग
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[१] यत् भगवद्भिः सर्वज्ञः सर्वदर्शिभिः परमर्षिभिरहद्भिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थङ्कर नामकर्मणानुभावादुक्तं भगवचिप्यरतिशयवाद्भः उत्तमातिशयवागू बुद्धि सम्पन्नैर्गणधरैः दृब्ध तदङ्गप्रविष्टम् गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्त विशुद्धा गमः परमप्रकृष्टवाङ्मतिबुद्धिशक्तिभिराचा यैः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत् प्रोक्तं तदंगबाह्यम् ॥ तत्वार्थमाध्य ( उमास्वाति ) १-२० # अंगप्रविष्टमाचारादिद्वादशमेदं बुद्धयतिशयद्धिं युक्तगणधरानुस्मृतग्रन्थरचनं ॥ १-२०-१२ ॥ आरातीयाचार्य कृतांगार्थं प्रत्यासन्नरूपमंगबाझं ॥ १-२०-१३ त० राजवार्तिक ॥।