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श्रुतज्ञान के भेद
[ ३०३ के ऊपर नियुक्त रक्खे गये और शब्दोंका परिवर्तन तो क्या किन्तु उदात्त अनुदात्त स्वरित उच्चारणों का भी परिवर्तन न होने दिया । जो ऐसा भूलसे भी करते थे उनको बहुत पापी कहा गया है । पाठप्रणाली के अनेक भेदों से जो वेद को सुरक्षित रखने की चेष्टा की गई है वह आश्चर्यजनक है । साधारण पाठप्रणाली को 'निर्भुज संहिता' कहते हैं जैसे 'अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्यदेवमृत्विज' [१] इस पाठको संधिच्छेद करके विरामपूर्वक जब पढ़ते हैं तब वह 'पद संहिता' कहलाती है। जैसे 'अग्निम्, इले , पुरः हितम्' इत्यादि । 'क्रमसंहिता' में आगे पीछे के शब्दों को सांकलकी तरह जोड़ा जाता है
और दुहराया जाता है । जैसे 'अग्निं ईले ईले पुरोहितं, पुरोहितं यज्ञस्य, यज्ञस्य देव, देव ऋत्विजम् ' जटापाठ में यह आम्रेडन और बढ़ जाता है। जैसे 'अग्नि ईले, ईले अग्निं, अग्निं ईले, ईले पुरोहितम, पुरोहितं, ईले, ईले पुरोहितं पुरोहितं यज्ञस्य, यज्ञस्य पुरोहितम् , पुरोहितम् यज्ञस्य यज्ञस्य देवं, देवं यज्ञस्य, यज्ञस्य देवं, देवं ऋत्विजम् , ऋत्विजम् देवं, देचं ऋत्विजम् ।' घनपाठ माला शिखा आदि अनेक पाठ विचित्र हैं । यह सब परिश्रम इसलिये था कि वेद में प्रक्षिप्त अंश न मिलने पावे । फिर भी कालभेद देशभेद व्यक्तिभेद और उच्चारण भेद से वेदके अनेक पाठभेद हुए हैं, और इस क्रम से प्रत्येक संहिता अनेक शाखाओं में विभक्त हुई । सामवेद की तो हजार शाखाएं कही जाती हैं, जब कि अन्य वेदों की भी दर्जनों शाखाएं हैं । इतना प्रयत्न करने पर भी अगर वेद अक्षुण्ण नहीं रह सका तब जैन साहित्य कितना
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(१) ऋग्वेद अष्टक १, मण्डल १, अध्याय १, अनुवाक १, सूत. १, पद्य प्रथम ।