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पाँचवाँ अध्याय तीन वाचनाओं में से प्रथम वाचना दी थी इसलिये सूत्रों की भाषा भद्रबाहुकी भाषा थी, यह कहने में ज़रा भी आपत्ति नहीं है ।
इस प्रकार जब सूत्र पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते रहे तो उनमें नई नई बातें भी मिलती रहीं । यहाँ तक कि उनमें गजाओं के वैभवों का वर्णन, आयुर्वेद, स्त्रीपुरुषों की कलाएँ, गणित-शास्त्र आदि भी शामिल हुए । परन्तु इन विषयों का मुनियों के ऊपर इतना बुरा प्रभाव पड़ा कि पिछले चार पूर्वो का पठनपाठन भद्रबाहु ने बन्द कर दिया और ये उन के साथ विलीन होगये।
सूत्रोंका परिवर्तन भद्रबाहु पर जाकर ही समाप्त नहीं हुआ किंतु आज जो सूत्रों की भाषा उपलब्ध है उस पर से साफ़ कहा जा सकता है कि यह पुरानी भाषा नहीं है। आचारांगकी प्राकृत से अन्य सूत्रों की प्राकृत बहुत कुछ जुदी पड़ जाती है, इससे मालूम होता है कि जैनमूत्रों की परम्परा संज्ञाक्षर या व्यंजनाक्षरों में नहीं आई किन्तु भावाक्षरों में आई है। अर्थात् सुधर्मा स्वामीने जम्बूस्वामी को जो उपदेश दिया उसे जम्बूस्वामीने शब्दशः सुरक्षित नहीं रक्खा किन्तु उस बात को समझ लिया, और अपनी भाषा में अपने शिष्यों को समझाया । इस परिवर्तन से अनेक अलंकार, अतिशयोक्तियाँ, उदाहरण आदि नये आगये । इतना ही नहीं, किंतु ज्यों ज्यों विद्या का विकास होता गया, परस्थितियाँ बदलती गई त्यों त्यों उनका असर भी शास्त्रों पर पड़ता गया। वैदिक ब्राह्मणों ने वंद को जिस तरह सुरक्षित रक्खा उस तरह जन-श्रमणोंने नहीं रक्खा । वेद को सुरक्षित रखने के कठोर नियम और घोर प्रयत्न वास्तव में आश्चर्यजनक हैं, हज़ारों ब्राह्मण बाल्यावस्थासे इसी काम