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पाँचवाँ अध्याय जाते हैं। संज्ञाक्षर नागरी आदि लिपियों में अक्षर का आकार । व्यंजनाक्षर अक्षर का उच्चारण । लब्ध्यक्षर ज्ञानरूप अक्षर भावश्रुत (१)।
अनक्षरशरुत-स्वर व्यंजनादि अक्षर रहित ध्वनिमात्र (२) { खांसना छींकना आदि से पैदा होनेवाला ज्ञान अनक्षरस्रुत है। टीकाकार का मत है कि हाथ वगैरह के इशारे से इस्तज्ञान न मानना चाहिये [३] परन्तु हाथ वगरह के इशारे से जब भावप्रदर्शन होता है तब उसे रुतज्ञान तो मानना ही पड़ता है। दरुतज्ञान को अक्षर या अनक्षादरुत में शामिल करना जरूरी है, इसलिये उसे अनक्षर में शामिल करना चाहिये । न्यायग्रन्थों में हाथ आदि के इशारे से पैदा होनेवाले ज्ञान को भी आगम कहा है । और उसमें अक्षररुत और अनक्षरुत को शामिल [४] किया है।
संज्ञिरुत-संज्ञा के तीन भेद हैं । दीर्घकालिकी-जिस में भूत भविष्य का लम्बा विचार किया जाता है वह दीर्घकालिकी संज्ञा है । इसीसे जीव संज्ञी कहलाता है। जो देहपालन आदि के लिये आहारादिक में बुद्धिपूर्वक प्रवृति होती है वह हेतुबानीपदशिकी
(१) नंदी ३८ ।
(२) उस सियं नीससियं निच्छदं खासि च छीयं च । निस्सियमा सारं अणहरं छोलियाईयं । आवश्यकसूत्र १९ ।
(३) यच्छुयते तच्छुतमि युच्यत न च करादिचेष्टा श्रुयत ततो न तत्र द्रव्य श्रुतत्वप्रसङ्गः ॥ नंदी का ३८ ॥
(७) अप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । आदिशब्देन हस्तसंहादि. पारिग्रहः । अनेनाक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं च संगृहीतं भवति ।। प्रमेयकमलमार्तण्ड ४ परि०॥