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२८२ ] पाँचवाँ अध्याय
इन तीन कारणों से संस्कार को लब्धि मानना अनुचित है। जब संस्कार, उपयोग रूप भी नहीं है और लब्धिरूप भी नहीं है तब उसे ज्ञानसे भिन्न गुण मानना उचित है। एक बात और भी विचारणीय है।
धारणा मतिज्ञान है और वह अवाय के बाद होता है। परन्तु अगर किसी मनुष्य को किसी विषय में संदेह पैदा हुआ, पीछे उसका ईहा और अवाय न हो पाया तो क्या उसको संदेह का संस्कार न होगा ? क्या हमें सन्देह का स्मरण नहीं होता ? यदि सन्देह का भी संस्कार होता है, ईहा का भी संस्कार होता है अवाय का भी संस्कार होता है, इरुतज्ञान का भी संस्कार होता है ( क्योंकि रुतज्ञान से जाने हुए पदार्थ का हमें स्मरण होता है) अवधि आदि का भी संस्कार होता है, तब संस्कार अवाय के अनन्तर होनेवाला मतिज्ञान कैसे माना जा सकता है ? इतना ही नहीं, उसे ज्ञान ही कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि वह किसी भी ज्ञानरूप नहीं ठहरता । अवग्रह की धारणा ईहा की धारणा आदि प्रयोगों से वह ज्ञान का सम्बन्धी कोई भिन्नगुण ही सिद्ध होता है ।
प्रश्न-संस्कार को अगर पृथक्गुण माना जायगा तो न्यूनाधिक संस्कार का कारण ज्ञानावरण कर्म न हो सकेगा। तब उस का कारण क्या होगा?
उत्तर-जब हम कोई पत्थर फेंकते हैं तब किसी के हाथ का पत्थर दस गज जाता है, और किसी का ५० गज जाता है, और किसी का सौ गज़ जाता है। इसका कारण पत्थर में पैदा