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पाँचवाँ अध्याय
जिसमें विशेष
भी है। दूसरे मत के अनुसार निःसृत उसे कहते हैं भेद का भी ज्ञान हो । शब्द सुनकर यह भी जानना कि यह मयूर का है या कुरकुर का, यह निःसृत कहलाता है । परन्तु इस प्रकार का विशेष निर्णय तो अवाय कहलाता है, और निःसृत का तो अवग्रह ईहा मी होता है, तब यह परिभाषा कैसे ठीक हो सकती है ?
तीसरे मतमें लिंग से - चिह्न से किसी वस्तु का ज्ञान निश्रित है और लिंग बिना किसी वस्तुका ज्ञान अनिश्रित है। असंदिग्ध का अर्थ है, संशयादि रहित और संदिग्ध का अर्थ हैं, विशेष में संदेह सहित । यदि संदेह सहित को संदिग्ध माना जाय तो उसका अवग्रह कैसे होगा ? अथवा अवग्रह ईहा अपाय तो निश्रितज्ञानं के भेद हैं, इन्हें अनिश्रित (१) रूप कैसे कहा जा सकता है ।
चतुर्थमत के विषय में सिद्धसेनगणी (२) कहते हैं कि उक्त और अनुक्त ये विषय सिर्फ़ कान के विषय हैं । अनुक्तका अर्थ अनक्षरात्मक शब्द है । सिर्फ कान का विषय होने से अन्य आचार्यों ने इसको लिया ही नहीं है और इसके बदले में निश्रित, अनिश्रित भेद माने हैं ।
(१) तत्त्वार्थ में असंदिग्ध और संदिग्ध पाठ है, और विशेषावश्यक में निर्थित और अनिश्रित पाठ है । यहाँ शब्दभेद ही है, अर्थ भेद नहीं, इसलिये इस पांचवा मत नहीं कह सकते ।
(२) उत्तमवगृह्णाति इत्ययं विकल्प: श्रोत्रावग्रहविषय एव न सर्वव्यापीति । ' अनुक्तस्तूतादन्य : १ ... शब्द एव अनक्षरात्मकोऽभिधीयते अव्याप्तिदोषभीत्या चापरैरिमं विकल्पं प्रोजाय अयं विकल्प उपन्यस्तः निश्रितमवगृह्णाति । त० भा० टीका १-१६ ।
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