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मतभेद और आलोचना । २९३ संज्ञा, तर्क को चिन्ता, और स्वार्थानुमान को अभिनिबोध कहते हैं। इसलिये इनकी दृष्टि में मति सांब्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलायी और स्मृत्यादि परोक्ष । लघीयस्त्रय के टीकाकार [१] अभयचन्द्र भी यही बात कहते हैं । व मति को प्रत्यक्ष और स्मृति संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध और रुत को परोक्ष कहते हैं ।
__इन दोनों मतोंका गाम्मटसार के टीकाकार से कुछ विरोध आता है । वे अवप्रहादि के भेदों का जो अनिःसृत भेद है उस में चिन्ता अनुमान आदि को शामिल करते हैं, यह बात मैं कह चुका हूँ। इस दृष्टि से मति के भीतर ही अनुमानादि आ जाते हैं ।
तत्वार्थ भाष्य के टीकाकार सिद्धसनगणी (२) दो मत बताते हैं। मति अर्थात् इन्द्रिय और मनक नित्तिसे उत्पन्न वर्तमानमात्रमाही बान। संज्ञा=एक त्वत्यभिज्ञान । चिन्ता अगामी अमुक वस्तु इस प्रकार बनेगी
तत्त्ववत्तत्र चिन्ता स्याद भासिनी ॥ १.१३ ८५ । तत्स ध्याभिमुखो बोधनियतः साधने तु यः । व तोऽनिद्रियुत्तं नामिनिबोधः स लाक्षतः १.३.
(१) मतिः मतिपन्न ज्ञान सोयवहारिकप्रत्यक्षमायं कारणमित्यर्थः । पत्यमिझानं संज्ञा । तर्कः चिला, आभता दशकालान्तरव्याप्त्या निबोधो निर्णयः लिंगादु.प.ना लिंगधारनमानामत्यर्थः
[२] येयं मतिःसेव मतिज्ञानं । मझिानं नाम यदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्त वर्तमानकालविषयपरि दि तैध इन्द्रियग्नु तमर्थ पुनर्विलोदय स एवार्य पमहमद्राक्ष पार्ने इति संशाशान । चिन्तामानमागामिना वस्तुन एवं निष्पत्तिमवति अन्यथा नति । आमिनिधि कम अभिमुखो निातां यः विषयपारदः।
"लोके स्मृतिशानं अतीतार्थविषयरिदि मिद्धम् । संसाहानं वर्तमानार्थमाहि, चिन्ताज्ञानमागामिकालाविषयम् ।... ... आमिनिवाधिकज्ञानरयव त्रिकालविषय. स्यते पयायाः | 1-1३।