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पाँचवाँ अध्याय
इनकी परिभाषा बदलना शुरू किया। लेकिन मूल ही ठीक नहीं था, इसलिये सुधार न हो सका ।
५ म. महावीर के समय में मतिज्ञान के इन्द्रिय अनिन्द्रिय के निमित्त से दो भेद या छः भेद प्रचलित थे। बाकी भेद पीछे की रचना है ।
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६ मतिज्ञान के मतभेदों का यहीं अन्त नहीं हो जाता किन्तु जरा जरासी बातों में इतना मतभेद है कि उनका कुछ निर्णय ही नहीं होता । तवा में मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता अभिनिबोध को अनर्थान्तर कहा गया है । राजवार्तिककार [१] कहते हैं कि ये पांच शब्द इन्द्र, शक्र, पुरन्दरको तरह पर्यायवाची हैं । सर्वार्थसिद्धिकार अभेद कहकर भी समभिरू नयकी ओक्षा भद्र मानते हैं | राजवार्त्तिककार प्रश्नोत्तर करते हैं कि 'मति क्या है जो स्मृति है | स्मृति [२] क्या है ? जो मति है' सर्वार्थसिद्धिकार अभेद की मात्रा इतनी अधिक नहीं बढ़ाते । परन्तु ये दोनों ही आचार्य पांचों का जुदा जुड़ा स्वरूप नहीं बना पात | सिर्फ व्याकरण की व्युत्पाते बताकर क तरह से बात को टाल कर चंद्र जत है ३ ।
श्लोकवार्तिककार अवग्रहादिको मति, [४ प्रत्यभिज्ञान को
(१) यत्र । इन्द्रशक रदगदिशब्दमंद ऽपि नाथभेदः तथा मत्यादि शब्दभदंऽपि अर्थमंदः । १-१३-४ ।
(२) का मातः ? स्वानरिति । का स्मृतिः ? या मतिरिति । १ १३.१०
(३) मनन मतिः, स्मरण स्मृतिः, सज्ञानं पंज्ञा, चितनं चिन्ता, अभिनिवेोधनं अभिनिबाधः ४ ३ ।
[४] मतिः अवग्रहादिरूपा १-०३-२ । सङ्गायाः सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूपायाः । १-१३- । सम्बन्धी वस्तु सन्नर्थक्रियाकारित्वयोगतः । चष्टाथ