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मतभेद और आलोचना [२८९ अकलंकदेवने उक्त और अनुक्त को भी आँख आदि सभी इन्द्रियों का विषय सिद्ध करने की कोशिश की है, परन्तु वह असफल रही है।
रुव और अध्रुव की परिभाषा भी मतभेद से खाली नहीं है।
___ सर्वार्थसिद्धिकार कहते हैं-'निरन्तर यथार्थ ग्रहण झव है (१)।' यहा पर यथार्थ ग्रहण व्यर्थ है | यथार्थग्रहण तो सभी भेदों में है। राजवा तक में उकलं वदेव यथार्थ ग्रहण को (२) ध्रुव कहते हैं । इसमें भी इसी प्रकार की व्यर्थता का दोष है। परन्तु वे पंद्रहवें वर्तिक की व्याख्या [३; में निरन्तर ग्रहणको छत्र कहते हैं और बारबार न्यूनाधिक ग्रहणको अस्व कहते हैं । इस प्रकार धीरे धीरे ग्रहण करने का नाम अरुव ग्रहण हुआ परन्तु यह अक्षिप्र से कुछ विशेषता नहीं रखता । सिद्धसेन गणी (४) कहते हैं कि इन्द्रिय अर्थ और उपयोग के रहने पर भी कभी ग्रहण होना कभी न होना अध्रुव है और सदा होना एव है । यदि यह कहा
(1) व निर तरं यथार्थग्रहणम् । १- । (२) रुवं यथार्थग्रहणात् । १-१६- ।
(३) यथा प्राथमिक इ.च्द ग्रहणं तथावस्थितमेव शन्दमवगृह्णाति । नोनं नाग्यधिक : पं.नःपूरन सक्लेशविरतपरिणार का जापपरयारना यथार पपरिणामोपात धोरेन्द्रियसान्निध्येऽपि तदावरणस्येषदादाविर्भावात् पौनापान प्रकष्टावकष्ट श्रोत्रीन्द्रयावरणादिक्षयोपशमपरिणामवासारुबागृङ्गाति । १-१६-1 .
(१) सतीद्रिये सति चोपयोगे सति च विषयसम्बन्ध कदापि विवयं तवा परिबिनाने कदाचिन्न इत्येतदरुषमवगृाति । १-१६।